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________________ प्रामाण्यवादः तत्प्रामाण्यनिश्वये स्वतः प्रामाण्यव्याघातश्च । यच्च संवादात्पूर्वस्य प्रामाण्ये चक्रकदूषणं; तदप्यसङ्गतम् ; न खलु संवादात्पूर्वस्य प्रामाण्यं निश्चित्य प्रवर्त्तते, किन्तु वह्निरूपदर्शने सत्येकदा शीतपीडितोऽन्यार्थं तद्दशमुपसर्पन् कृपालुना वा केनचित्तद्द ेशं वह्नरानयने तत्स्पर्शविशेषमनुभूय तद्रूपस्पर्शयोः सम्बन्धमवगम्यानभ्यासदशायां 'ममायं रूपप्रतिभासोऽभिमतार्थक्रियासाधनः एवंविधप्रतिभासत्वात्पूर्वोत्पन्नं वंविधप्रतिभासवत्' इत्यनुमाना Jain Education International ४४५ प्रमाणों में अर्थ प्राकट्य के यथार्थत्व विशेषरण को जानने के लिये प्रमाण परंपरा की विश्रान्ति नहीं होगी अर्थात् अनुमान के हेतु का विशेषरण जानने के लिये पुनः अन्य प्रमाण की जरूरत होगी, पुनः उसमें प्रदत्त हेतु के विशेषण को जानने के लिये अन्य प्रमाण ज्ञान की आवश्यकता होगी, इस प्रकार कहीं भी स्थिति नहीं रहेगी । इन दोषों से बचने के लिये यदि अर्थप्राकट्य हेतु विशेषण रहित माना जाय तो प्रतिप्रसंग होगा - श्रर्थात् यह जल ज्ञान प्रमाणभूत है क्योंकि इसके द्वारा अर्थप्राकट्य हुआ है सो इतने मात्र हेतु से जलज्ञान में प्रामाण्य माना जाये तो मिथ्याज्ञान में भी प्रामाण्य मानना पड़ेगा ? क्योंकि उसके द्वारा भी अर्थप्राकट्य तो होता ही है । किञ्च यदि प्रत्यक्ष या अनुमान द्वारा पूर्वज्ञान में प्रामाण्य का निश्चय होना माने तो "प्रामाण्य की उत्पत्ति स्वतः होती है ऐसी आपकी मान्यता खतम होती है जो आपको अनिष्ट है । भट्ट ने पूर्व में कहा था कि संवादक ज्ञान से प्रमाण में प्रामाण्य आता है ऐसा माना जायगा तो चक्रक दोष आवेगा सो यह कहना गलत है- क्योंकि कोई पुरुष अपने जलादि ज्ञानों में संवादक प्रत्यय के द्वारा प्रमाणता का निश्चय करके अर्थ क्रिया करने की प्रवृत्ति नहीं करता है । अर्थ क्रिया में प्रवृत्ति किस तरह होती है ? ऐसा प्रश्न हो तो बताते हैं- किसी पुरुष ने पहले अग्नि का रूप दूर से देखा था, वह पुरुष पुष्पादि वस्तु को लाने के लिये वहीं कहीं जा रहा था, रास्ते में उसे सर्दी लगी, वहीं पर कहीं अग्नि जल रही थी, उस अग्नि को देखकर वह उसके निकट गया तो उसे उसका उष्णस्पर्श प्रतीत हुआ तब वह पुरुष पूर्व में देखा हुआ भास्वर रूप और वर्तमान का अनुभव किया हुआ, उष्णस्पर्श इन दोनोंका संबंध जान लेता है कि ऐसे भास्वर रूप वाला पदार्थ उष्णता युक्त होता है, मेरा यह रूपका ज्ञान इच्छित कार्य को करने वाला है । इस तरह निश्चय करके वह पुरुष अग्नि से तापने आदि कार्य में प्रवृत्ति करता है क्योंकि वह अग्नि के विषय में अनभ्यस्त था, यदि उस शीत पीडित पुरुष को देखकर कोई दयालु व्यक्ति उसके पास अग्नि को लाकर रखता है तब भी वह पुरुष अपने For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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