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प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रसङ्गाच्च । निखिलवचनानां लोके गुणवत्पुरुषप्रणीतत्वेन प्रामाण्यप्रसिद्धः, अत्रान्यथापि तत्परिकल्पने प्रतीतिविरोधाच्च ।
अपि च अपौरुषेयत्वेप्यागमस्य न स्वतोऽर्थे प्रतीतिजनकत्वम् सर्वदा तत्प्रसङ्गात् । नापि पुरुषप्रयत्नाभिव्यक्तस्य ; तेषां रागादिदोषदुष्ट त्वेनोपगमात् तत्कृताभिव्यक्त यथार्थतानुपपत्तेः । तथाच अप्रामाण्यप्रसङ्ग भयाद्पौरुषेयत्वाभ्युपगमो गजस्नानमनुकरोति । तदुक्तम्--
पड़ेगा । इसलिये वेद वचन ही प्रमाणभूत है ऐसी बात नहीं बनती है। प्रसिद्ध बात जगत में है कि जो वचन गुणवान् पुरुष के द्वारा कहे गये होते हैं उन्हीं में प्रामाण्य होता है और वे ही मान्य होते हैं। इससे विपरीत मानते हैं तो प्रतीति से विरोध आता है अर्थात्-वेद का रचयिता पुरुष नहीं है वह तो अपौरुषेय है ऐसा स्वीकार करोगे तो प्रतीति विरुद्ध बात होगी, क्योंकि अपौरुषेय वचनों में प्रमाणता आती ही नहीं है । वह तो गुणवान् पुरुष के वचनों से ही आती है। आपके प्राग्रह से अब हम उसे अपौरुषेय मान कर उस पर विचार करते हैं, भले ही आपका आगम अपौरुषेय होवे तो भी वह स्वत: ही अपने अर्थों की प्रतीति तो नहीं करायेगा ? यदि स्वतः ही अर्थ की प्रतीति कराता है ऐसा माना जाय तो हमेशा ही प्रतीति कराने का प्रसङ्ग प्राप्त होता है, इसलिये वेद स्वतः ही अपने पदों का अर्थबोध कराता है ऐसा कहना गलत है। यदि किसी ज्ञानी पुरुष के द्वारा उन वेद पदों का अर्थ समझाया जाता है इस प्रकार का पक्ष माना जाय तो भी आपत्तिजनक है, क्योंकि आपके मतानुसार सभी पुरुष रागद्वेष आदि दोषों से भरे हुए होते हैं, वे वेद पदों का सही अर्थ समझा नहीं सकते, अतः पुरुष के द्वारा जो वेदवाक्यों का अर्थ किया जावेगा तो "उन वाक्यों का ऐसा ही अर्थ है" इस तरह की निर्दोष प्रतीति कैसे हो सकेगी और कैसे उस अर्थ में प्रमाणता आसकेगी ? नहीं पा सकती। दूसरी बात यह है कि आपने अप्रामाण्यके भयसे वेदको अपौरुषेय माना था [अर्थात् वेदको पुरुषकृत मानेंगे तो अप्रमाणभूत होवेगा] किन्तु उसको अपौरुषेय मानकर भी पुनः वेदार्थको पुरुषकृत बताया सो यह गजस्नान जैसी चीज हुई अर्थात् स्वच्छताके लिये हाथी ने स्नान किया किन्तु पुनः अपने ऊपर धूलको डाल दिया, ठीक इसी प्रकार अप्रामाण्य के दोष को दूर करनेके लिये वेदको अपौरुषेय स्वीकार किया किन्तु पुन: वेदार्थ को पुरुषकृत ही मान लिया, सो यह मीमांसक की गज स्नान जैसी प्रक्रिया है। कहा भी है
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