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प्रामाण्यवादः
अनुमानोत्पादकहेतोस्तु साध्याविनाभावित्वमेव गुणो यथा तद्व कल्यं दोषः । साध्याविनाभावस्य हेतुस्वरूपत्वाद्गुणरूपत्वाभावे तद्वै कल्यापि हेतोः स्वरूपविकलत्वाद्दोषता मा भूत् ।
प्रागमस्य तु गुणवत्पुरुषप्रणीतत्वेन प्रामाण्यं सुप्रसिद्धम्, अपौरुषेयत्वस्यासिद्ध:, नीलोत्पलादिषु दहनादीनां वितथप्रतीतिजनकत्वोपलम्भेनानेकान्तात्, परस्परविरुद्धभावनानियोगाद्यर्थेषु प्रामाण्य.
ने भाट्ट के विविध कथनों और शंकाओं का निरसन किया है । अब अनुमान प्रमाण में भी गुणों से ही प्रामाण्य की उत्पत्ति होती है ऐसा सिद्ध करते हैं-अनुमान का उत्पादक जो हेतु है उस हेतु का अपने साध्य के साथ अविनाभाव से रहना गुण कहा जाता है, जैसा कि अपने साध्य के साथ हेतु का अविनाभाव से नहीं रहना हेतु का दोष कहा गया है । “साध्य के साथ अविनाभावपने से रहना हेतु का स्वरूप है न कि गुण" यदि ऐसा माना जाय तो अविनाभाव की विकलता भी हेतु का स्वरूप ही मानना चाहिये; उसे दोष रूप नहीं मानना चाहिये, इस तरह अनुमान प्रमाण में भी गुणों से ही प्रमाणता की उत्पत्ति होती है, यह सिद्ध हुआ । आगम में प्रमाणता की उत्पत्ति का कारण तो उसका गुणवान्-रागद्वेष रहित पुरुष के द्वारा प्रणीतत्व होना है यह सर्व प्रसिद्ध बात है, फिर भी मीमांसकादि आगम को अपौरुषेय (-पुरुष के द्वारा नहीं रचा हुआ) मानते हैं, सो यह अपौरुषेयपना असिद्ध है-क्योंकि विना पुरुषकृत प्रयत्न के शब्द रचना होती नहीं इत्यादि अनेक दूषण आगम को अपौरुषेय मानने में आते हैं । तथा जो अपौरुषेय [पुरुषकृत नहीं] है वही सत्य है ऐसा कहना अनैकान्तिक दोष युक्त है, कैसे सो बताते हैं-जंगल में जब स्वयं दावाग्नि प्रज्वलित होती है तब उस अग्नि के प्रकाश में नील कमल आदि पदार्थ लाल रंग युक्त सुवर्ण जैसे दिखायी देते हैं, सो ऐसे मिथ्याज्ञान होने में कारण पुरुषकृत प्रयत्न न होकर अपौरुषेय [स्वयं प्रकट हुई दवाग्नि] ही कारण है । अतः जो अपौरुषेय है वही प्रमाण है-सत्य ज्ञानका कारण है ऐसा नियम नहीं रहता है । एक बात सुनिये ! आप लोग वेद को अपौरुषेय मानते हैं, और उसी को सर्वथा प्रमाणभूत स्वीकार करते हैं तो फिर वेद के पदों के अर्थ करने में इस प्रकार की परस्पर विरुद्धार्थता क्यों ? देखो "पूर्वाचार्यो हि धात्वर्थ वेदे भट्टस्तु भावनाम् । प्राभाकरो नियोगंतु शंकरो विधिमब्रवीत्" पूर्वाचार्य वेदस्थित पदों का अर्थ धातु परक करते हैं, भाट्ट भावना रूप अर्थ करते हैं, तुम्हारे भाई प्रभाकर नियोग रूप अर्थ करते हैं तथा शंकरमतवाले उन पदों का अर्थ विधिरूप करते हैं, सो अपौरुषेय वेद को प्रमाणभूत मानने में इन परस्पर विरुद्ध अर्थों को भी प्रामाणिक मानना
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