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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
तेन जन्मैव बुद्ध विषये व्यापार उच्यते ।
तदेव च प्रमारूपं तद्वती करणं च धीः ।। २ ।। "
[ मी० श्लो० सू० २ श्लो० ५५-५६ ] इति ।
किञ्च, प्रमाणस्य किं कार्यं यत्रास्य प्रवृत्तिः स्वयमेवोच्यते यथार्थपरिच्छेदा, प्रमाणमिदमित्यवसायो वा ? तत्राद्यविकल्पे ' श्रात्मानमेव करोति' इत्यायातम्, तच्चायुक्तम्; स्वात्मनि क्रियाविरोधात् । नापि प्रमाणमिदमित्यवसायः भ्रान्तिकारणसद्भावेन क्वचित्तदभावात् क्वचिद्विपदर्शनाच्च ।
प्रमाण या विज्ञान उत्पत्ति के बाद क्षणमात्र भी ठहरता नहीं है— नष्ट हो जाता है, तथा अप्रमाणरूप भी पैदा नहीं होता । प्रमाण की जो उत्पत्ति है वही उसका विषय में व्यापार या प्रवृत्ति कहलाती है, अतः ज्ञान इन्द्रियों के समान उत्पत्ति के बाद भी स्वकार्य करने में समर्थ नहीं होता, अतः ज्ञान का उत्पन्न होना ही उसकी विषय में प्रवृत्ति है वही प्रमा - जाननेरूप प्रमिति है । और वही इस प्रमा का करण है प्रमायुक्त बुद्धि भी वही है, सब कुछ वही है । अत: श्रापके इस श्रागम कथन से सिद्ध होता है कि ज्ञान उत्पत्ति के बाद ही नष्ट हो जाता है ।
दूसरी बात यह है कि आप स्वयं कहिये कि प्रमाण का कार्य क्या है कि जिसमें इसकी - प्रमाण की प्रवृत्ति स्वयं होती है ? क्या जैसा पदार्थ है वैसा ही जानना यह प्रमाण का कार्य है अथवा " यह प्रमाण है" ऐसा निश्चय होना यह प्रमाण का कार्य है ? प्रथम विकल्प - यथार्थ रूप से जानने को प्रमाण का कार्य माना जाय तो प्रमाण ने अपने को किया ऐसा अर्थ हुआ पर यह कथन आपके मन्तव्य से फिट नहीं बैठता है क्योंकि "स्वात्मनि क्रिया विरोध: " अपने आपमें क्रिया नहीं होती ऐसा आपका ही सिद्धांत है । "यह प्रमाण है" ऐसा स्वका बोध होना प्रमाण का कार्य है, ऐसा दूसरा विकल्प भी गलत है, देखिये ! किसी मनुष्य के नेत्र सदोष हैं इससे उसे सत्यजल ज्ञान के हो जाने पर भी भ्रम हो जाता है अतः वह व्यक्ति यह जल ज्ञान प्रमाण है ऐसा निर्णय नहीं कर पाता है । तथा कहीं कहीं पर तो इससे विपरीत भी देखा जाना होता है - जैसे कि भ्रान्त ज्ञान में "यह प्रमाण है" ऐसा निर्णय गलत हो जाता है, सो इस प्रकार का निर्णय होने मात्र से क्या भ्रान्त ज्ञान प्रमाण बन जायेगा ? नहीं | यहां तक प्रत्यक्ष प्रमाण में प्रामाण्य की उत्पत्ति किस प्रकार पर से ( गुणों से होती है) आती है इस बात को सबल युक्तियों से सिद्ध करते हुए आचार्य
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