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प्रामाण्यवादः
स्यात् ? घटस्य तु जलोद्वहनव्यापारात्पूर्व रूपान्तरेणापि स्वहेतोरुत्पत्त युक्ता मृदादिकारणनिरपेक्षस्य तत्र प्रवृत्तिः प्रतीति निबन्धनत्वाद्वस्तुव्यवस्थायाः । विज्ञानस्य तूत्पत्त्यनन्तरमेव विनाशोपगमात्कुतो लब्धात्मनो वृत्तिः स्वयमैव स्यात् ? तदुक्तम्
"न हि तत्क्षणमप्यास्ते जायते वाऽप्रमात्मकम् । येनार्थग्रहणे पश्चाद्व्याप्रियेतेन्द्रियादिवत् ।। १॥
मीमांसक भाट्ट ने प्रतिपादन किया था— पदार्थ जब अपने स्वरूप को प्राप्त हो चुकते हैं तब वे स्वतः ही अपने कार्यों में प्रवृत्ति करने लग जाते हैं इत्यादि, सो यह प्रतिपादन भी ठीक नहीं है, इसी को बताते हैं--पदार्थ जैसा है वैसा उसका निश्चय करना-जानना जिससे होता है वह ज्ञान प्रमाणभूत कहलाता है, अर्थात् जैसी वस्तु है वैसी ही उसका ज्ञान के द्वारा ग्रहण होना प्रामाण्य का लक्षण है । ऐसे प्रामाण्य में या प्रामाण्यधर्मवाले प्रमाण में कारणों की अपेक्षा देखी जा रही है तब और न्यारी कौन सी प्रमाण की प्रवृत्ति बचती है कि जिसमें वह स्वत: प्रवृत्त न हो; अर्थात्यथावस्थित पदार्थ को जानना ही प्रामाण्य है और वही प्रमाण की प्रवृत्ति है । पदार्थ अपने स्वरूप को प्राप्त कर फिर अपने कार्य में प्रवृत्ति किया करते हैं ऐसा सिद्ध करते समय उन्होंने जो घट का उदाहरण दिया था सो घट की बात जुदी है, घट अपना कार्य जो जलधारण आदि है उसमें प्रवृत्ति करने के पहले भी भिन्नस्वरूप से स्वकारण द्वारा उत्पन्न होते हुए देखा जाता है अर्थात् मिट्टी आदि कारण से घट अपने स्वरूप को प्राप्त करता है पर वह स्वरूप तो उस समय उसका रिक्ततारूप रहता है [खालीरूप होता है] बाद में जल धारण-[जलादि से भरे रहने] रूप जो स्वकार्य है उसमें उसकी प्रवृत्ति हुआ करती है, अत: घट का जो जलधारणादि कार्य है उसमें मिट्टी प्रादि कारणों की अपेक्षा उसे नहीं होती है, घटादि पदार्थ इसी तरह से स्वकार्यको करनेवाले होते हैं । ऐसा ही सभी को प्रतीत होता है, प्रतीति के बल पर ही वस्तुओं की व्यवस्था हुआ करती है। यह घट की प्रक्रिया ज्ञान में घटित नहीं होती अर्थात् घट की तरह ज्ञान पहले इन्द्रियोंसे प्रामाण्य रहित उत्पन्न होता हो फिर स्वकार्य में प्रवृत्त होता हो सो बात नहीं, वह तो प्रामाण्य युक्त ही उत्पन्न होता है । तथा ज्ञान उत्पत्ति के अनन्तर ही नष्ट हो जाता है ऐसा आपने स्वीकार किया है, अत: पहिले ज्ञान उत्पन्न होवे फिर वह जाननेरूप कार्य में प्रवृत्त होवे ऐसा ज्ञान के सम्बन्ध में घट की तरह होना सिद्ध नहीं होता है । आपके ग्रन्थ में भी यही बात कही है
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