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प्रामाण्यवादः "असंस्कार्यतया पुभिः सर्वथा स्यान्निरर्थता । संस्कारोपगमे व्यक्त गजस्नानमिदं भवेत् ।। १॥"
[प्रमाणवा० १।२३२ ] तन्न प्रामाण्यस्योत्पत्तौ परानपेक्षा ।
नापि ज्ञप्तौ । साहि निनिमित्ता, सन्नि (सनि)मित्ता वा ? न तावन्निनिमित्ता; प्रतिनियतदेशकालस्वभावाभावप्रसङ्गात् । सनिमित्तत्वे किं स्वनिमित्ता, अन्य निमित्ता वा ? न तावत्स्वनिमित्ता, स्वसं विदितत्वानभ्युपगमात् । अन्यनिमित्तत्वे तत्कि प्रत्यक्षम्, उतानुमानम् ? न तावत्प्रत्यक्षम् ; तस्य
यदि वेदार्थ को पुरुष द्वारा संस्कारित नहीं मानते हैं तो वेद पद निरर्थक ठहरते हैं, और यदि वे पद पुरुष द्वारा संस्कारित हैं ऐसा मानते हैं तो स्पष्ट रूपसे गज स्नानका अनुकरण होता है ॥ १ ॥
__इस प्रकार प्रामाण्य की उत्पत्तिमें परकी अपेक्षा नहीं होती ऐसा मीमांसक का एकांत आग्रह था वह सिद्ध नहीं हुआ । अब प्रामाण्य की ज्ञप्ति परसे नहीं होती ऐसा उन्हीं मीमांसक का जो पूर्वपक्ष था उस पर विचार करते हैं-सबसे पहले प्रश्न होता है कि प्रामाण्यकी ज्ञप्ति निनिमित्तक है या सनिमित्तक है ? निनिमित्त का मानना ठीक नहीं रहेगा, क्योंकि ज्ञप्तिको निमित्त रहित मानने पर प्रतिनियत देश प्रतिनियत काल एवं प्रतिनियत स्वभावपनेका उस ज्ञप्ति में अभाव होगा, जो निनिमित्त वस्तु होती है उसमें प्रतिनियत देश-इसी एक विवक्षित स्थान पर होना, प्रतिनियत काल-इसी काल में होना और प्रतिनियत स्वभाव-इसी स्वभाव रूप होना ऐसा देशादिका नियम बन नहीं सकता । दूसरा प्रश्न-प्रामाण्य की ज्ञप्ति सनिमित्तक है ऐसा मानने पर प्रश्न होता है कि उस ज्ञप्ति का निमित्त क्या है ? क्या प्रामाण्य ही उसका निमित्त है अथवा प्रामाण्य से पृथक् कोई दूसरा उसका निमित्त है ? स्वनिमित्तक [प्रामाण्य निमित्तक] ज्ञप्ति हो नहीं सकती, क्योंकि मीमांसकों ने ज्ञान को स्वसंविदित माना ही नहीं है । यदि ज्ञप्ति का अन्य दूसरा निमित्त है ऐसा दूसरा पक्ष मानो तो पुनः प्रश्नों की माला गले पड़ती है कि वह अन्य निमित्त कौन है । क्या प्रत्यक्ष है अथवा अनुमान ? प्रत्यक्ष निमित्त बन नहीं सकता क्योंकि प्रामाण्य की ज्ञप्ति में प्रत्यक्ष प्रमाण की प्रवृत्ति ही नहीं होती है, प्रत्यक्ष प्रमाण तो इन्द्रिय से संयुक्त विषय में प्रवृत्ति करता है । अक्षंइन्द्रियं प्रति वर्तते इति प्रत्यक्षम्" ऐसी प्रत्यक्ष पद की व्युत्पत्ति है, सो प्रामाण्य के
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