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________________ ४३५ दुष्टकारण प्रभवासत्यप्रत्ययेष्वभावात् ? ग्रप्रामाण्यस्य चौत्सर्गिकत्वमस्तु दोषाणां गुणापगमे व्यापारात् । भवतु वा भावाद्भिन्नोऽभावः तथाप्यस्य प्रामाण्योत्पत्तौ व्याप्रियमाणत्वात्कथं तत्स्वत: ? न चाभावस्याऽजनकत्वम्, कुड्याद्यभावस्य परभागावस्थितघटादिप्रत्ययोत्पत्तौ जनकत्वप्रतीतेः, प्रमाणपञ्चकाभावस्य चाभावप्रमाणोत्पत्तौ । प्रामाण्यवादः यो पि-यथार्थत्वायथार्थत्वे विहायोपलम्भसामान्यस्यानुपलम्भ:- सोपि विशेषनिष्ठत्वात्तत्सामान्यस्य युक्तः । न हि निविशेषं गोत्वादिसामान्यमुपलभ्यते गुणदोषरहितमिन्द्रियसामान्यं वा, उसी कारण से प्रामाण्य भी स्वतः होना सिद्ध होता है । दुर्जनसंतोषन्याय से यदि आपकी बात हम स्वीकार भी करलें कि भाव से भिन्न प्रभाव होता है - गुणों से भिन्न ही दोषों का प्रभाव हुआ करता है तो भी प्रामाण्य की उत्पत्ति में वह प्रभाव व्यापार करता है - प्रामाण्य को उत्पन्न करता है, अतः प्रामाण्य में स्वतस्त्व कैसे आ सकता है । तुम कहो कि प्रभाव अजनक है- किसी को पैदा नहीं करता है; सो भी बात नहीं है, कैसे सो बताते हैं, भित्ति आदि का प्रभाव जब होता है तब उसके परभाग में रखे हुए घट आदि पदार्थों का ज्ञान होता है, वह ज्ञान भित्ति के प्रभाव के कारण से ही तो होता है, तथा पांचों प्रमाणों का ( प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, प्रर्थापत्ति) प्रभाव भी प्रभाव प्रमाण की उत्पत्ति में कारण है, इन उदाहरणों से निश्चित होता है कि अभाव भी कार्य का जनक है । भट्ट ने जो यह कहा है कि यथार्थग्रहण और अयथार्थग्रहण को छोड़कर अन्यरूप से [सामान्य रूप से ] पदार्थ का ग्रहण नहीं होता है सो यह कथन ठीक ही है। क्योंकि केवल सामान्य का ग्रहण नहीं होता सामान्य तो अपने विशेषों में ही स्थित रहता है । कहीं पर भी विशेष रहित अकेला सामान्य नहीं प्रतीत होता, जैसे कि सफेद काली आदि अपने विशेषों को छोड़कर गोत्व सामान्य कहीं पर भी स्वतंत्र रूप से प्रतीति में नहीं आता है । इसी प्रकार गुण और दोष इन दोनों विशेषों से रहित अकेला इन्द्रियरूप सामान्य भी कहीं पर प्रतीत नहीं होता प्रतः केवल सामान्यके बारे में ही यह प्रश्न हो कि सामान्य अकेला नहीं रहता इत्यादि, सो बात नहीं है, विशेष भी सामान्य के विना अकेला नहीं रहता, उभयत्र समानता है । मीमांसकभाट्ट लोक व्यवहार को प्रमाण मानते हैं, अतः अभय की - प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों की ही उत्पत्ति पर से होती है ऐसा लौकिकव्यवहार उन्हें मानना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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