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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे येनोपलम्भसामान्येऽप्ययं पर्यनुयोगः स्यात् । लोकं च प्रमाणयतोभयं परतः प्रतिपत्तव्यम् । सुप्रसिद्धो हि लोकेऽप्रामाण्ये दोषावष्टब्धचक्षुषो व्यापारः, प्रामाण्ये नर्मल्यादियुक्तस्य, 'यत्पूर्व दोषावष्टब्धमिन्द्रियं मिथ्याप्रतिपत्तिहेतुस्तदेवेदानी नैर्मल्यादियुक्त सम्यकप्रतिपत्तिहेतुः, इति प्रतीतेः।। यचोच्यते-क्वचिन्निर्मलमपीन्द्रियं मिथ्याप्रतीतिहेतु रन्यत्रारक्तादिस्वभावं सत्यप्रतीतिहेतुः, तत्रापि प्रतिपत्त र्दोषः स्वच्छनील्यादिमले निर्मलाभिप्रायात् । अनेकप्रकारो हि दोषः प्रकृत्यादिभेदात्, तदभावोपि भावान्तरस्वभावस्तथाविधस्तत एव । न चोत्पन्न सद्विज्ञानं प्रामाण्ये नैर्मल्यादिकमपेक्षते येनानयोर्भेदः स्यात् । गुणवच्चक्षुरादिभ्यो जायमानं हि तदुपात्तप्रामाण्यमेवोपजायते । चाहिये । क्योंकि लोक व्यवहार में देखने में आता है कि अप्रामाण्य के होने में दोषयुक्त नेत्र कारण होता है तथा प्रामाण्य में निर्मलतादि गुणयुक्त नेत्र कारण होता है । लोक में भी यह बात प्रसिद्ध है कि सदोष चक्षु का व्यापार अप्रामाण्य में और नैर्मल्यादिगुण युक्त चक्षु का व्यापार प्रामाण्य में कारण होता है, लोक में ऐसी प्रतीति होती है कि जो नेत्र आदि इन्द्रियां पहले दोषयुक्त होने से मिथ्याज्ञान का कारण बनती थीं वे ही इन्द्रियां अब निर्मलतादि गुणयुक्त होकर सम्यक् प्रतीति की उत्पत्ति में हेतु बनती हैं । भाट्ट का जो ऐसा कहना है “कि कहीं २ निर्मलगुण युक्त नेत्र भी मिथ्याज्ञान के कारण हो जाते हैं, तथा कहीं २ किसी व्यक्ति के लालिमादिदोषयुक्त नेत्र सत्यज्ञान के कारण होते हैं" सो इस प्रकार के ज्ञान होने में इन्द्रियगत निर्मलता का दोष नहीं है किन्तु जाननेवाले पुरुष की ही गलती है, क्योंकि वे व्यक्ति स्वच्छ नीली आदिरूप आँख के मल को ही निर्मलता मान बैठते हैं। पुरुष और उसके नेत्रादि इन्द्रियों में अनेक प्रकार के वातादि दोष हुआ करते हैं और उन दोषों का प्रभाव जो कि भावान्तर स्वभाववाला है, अनेक प्रकार का हुआ करता है । एक बात यह भी है कि ज्ञान उत्पन्न होकर फिर अपने में प्रामाण्य के निमित्त निर्मलतादिक की अपेक्षा करता हो ऐसी बात तो है नहीं जिससे प्रमाण भूत ज्ञान और प्रामाण्य में भेद माना जाय, प्रमाण ज्यों ही गुणवान् नेत्रादि इन्द्रियों से उत्पन्न होता है त्यों ही वह प्रामाण्य सहित ही उत्पन्न होता है, इसलिये इनमें काल का भेद नहीं पड़ता है। ___ भाट्ट की मान्यता है कि पदार्थ को जैसा का तैसा जाननेरूप जो शक्ति है उस शक्तिलक्षण वाला प्रामाण्य स्वतः ही हो जाया करता है, इस मान्यता पर हम जैन का आक्षेप है कि यदि पदार्थ को जैसा का तैसा जानना रूप प्रामाण्य स्वतः होता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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