________________
प्रमेयकमलमार्तण्डे इत्यस्य विरोधः । ततो हेतोनियमविरहस्य दोषरूपत्वे चेन्द्रिये मलापगमस्य गुणरूपतास्तु । तथाच सूक्तमिदम्
"तस्माद्गुणेभ्यो दोषारणामभावस्तदभावतः । अप्रामाण्यद्वयासत्त्वं तेनोत्सर्गोऽनपोदितः ॥"
[ मी० श्लो० सू० २ श्लो• ६५ ] इति । 'गुणेभ्यो हि दोषाणामभावः' इत्यभिदधता 'गुणेभ्यो गुरणा:' एवाभिहितास्तथा प्रामाण्यमेवाप्रामाण्यद्वयासत्त्वम्, तस्य गुणेभ्यो भावे कथं न परतः प्रामाण्यम् ? कथं वा तस्यौत्सर्गिकत्वम्
होता है कि-मिथ्यात्व, अज्ञान और संशय के भेद से अप्रामाण्य तीन प्रकार का है । इन तीनों में संशय और मिथ्यात्व ये दो वस्तुरूप [भाव रूप] हैं, और अज्ञान तो ज्ञानका अभावरूप मात्र है । भाव रूप जो मिथ्यात्व और संशय हैं इनकी उत्पत्ति [अर्थात् अप्रामाण्यकी उत्पत्ति] दुष्ट कारण जो काच कामलादि इन्द्रिय दोष है उस कारणसे होती है । इस श्लोक में सिर्फ अप्रामाण्यको परसे उत्पन्न होना बताया है, किंतु यह कथन बाधित हो चुका है इसलिये बुद्धिमत्ता की बात यही है कि जिस प्रकार हेतु में अविनाभाव का अभाव दोषरूप है उसी प्रकार इन्द्रिय में मल का अभाव होना गुणरूप है ऐसा स्वीकार करना चाहिये । आपके ग्रन्थ में लिखा है कि गुणों से दोषों का प्रभाव हो जाया करता है, और उनका प्रभाव होने से संशय विपर्ययरूप दोनों अप्रामाण्य खतम हो जाते हैं इस वजह से प्रामाण्य अबाधित रहता है अर्थात् स्वतः आता है ऐसा माना है ॥१॥ इस श्लोक में गुणों से दोषों का अभाव होता है ऐसा जो कहा गया है सो इसका मतलब हम तो यही निकालते हैं कि गुणों से गुण ही होते हैं । तथा प्रामाण्य ही अप्रामाण्य द्वयका [मिथ्यात्व और संशय] असत्व है। अब यह जो प्रामाण्य है वह गुणोंसे होता है ऐसा सिद्ध हो रहा है तब परत: प्रामाण्यवाद किस प्रकार सिद्ध नहीं होगा ? अवश्य होगा । दूसरी बात यह है कि दुष्ट कारणोंसे उत्पन्न होनेवाले [सदोष इन्द्रियादिसे] असत्य ज्ञानोंमें नैसर्गिकपना नहीं है अर्थात् स्वतःअप्रामाण्य नहीं है ऐसा आपका कहना है वह किस प्रकार सिद्ध हो सकता है ? क्योंकि प्रामाण्यवत् अप्रामाण्य भी नैसर्गिक होने में कोई आपत्ति नहीं दिखायी देती, जैसे गुणोंसे दोषों का अभाव होकर उससे अप्रामाण्य का असत्व होता है । ऐसा आप मानते हैं, वैसे दोषों से गुणोंका अभाव होकर प्रामाण्यका असत्व होता है ऐसा भी प्रापको मानना चाहिये । कहने का अभिप्राय यह है कि जिस कारणसे प्रामाण्य को सर्वथा स्वतः होना स्वीकार करते हो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org