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प्रामाण्यवादः
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इत्यस्य विरोधः ।
__तथा च गुणदोषाणां परस्परपरिहारेणावस्थानादोषाभावे गुणसद्भावोऽवश्याभ्युपगन्तव्यो ऽग्न्यभावे शीतसद्भाववत्, अभावाभावे भावसद्भाववद्वा । अन्यथा कथं हेतौ नियमाभावो दोषः स्यात् अभावस्य गुणरूपतावद्दोषरूपत्वस्याप्ययोगात् ? तथाच-नैर्मल्यादिव्यतिरिक्तगुणरहिताच्चक्षुरादेरुपजायमानप्रामाण्यवनियमविरहव्यतिरिक्तदोषरहिताद्ध तोरप्रामाण्यमप्युपजायमानं स्वतो विशेषाभाधात् । तथा च
"अप्रामाण्य त्रिधा भिन्न मिथ्यात्वाज्ञानसंशयः । वस्तुत्वाद् द्विविधस्यात्र सम्भवो दुष्ट कारणात् ॥"
[ मी० श्लो. सू० २ श्लो० ५४ ]
प्रभाव का स्वरूप मान्य है । ऐसे प्रभाव का किसी हेतु से उत्पाद क्यों नहीं होगा ? अवश्य ही होगा, मतलब-इस श्लोक में प्रभाव को भावान्तरस्वभाववाला सिद्ध किया है। इसलिये उसे निःस्वभाव मानना विरुद्ध पड़ता है, इस प्रकार अभाव तुच्छाभावरूप नहीं है यह सिद्ध हुआ। जब गुण और दोष एक दूसरे का परिहार करके रहते हैं यह निश्चित हो गया तब जहां दोषों का अभाव है वहां गुणों का सद्भाव अवश्य ही हो जाता है, जैसे-अग्नि के प्रभाव में शीत का सद्भाव अवश्य होता है । अथवा प्रभाव के अभाव में (घट के अभाव के अभाव में घट भाव का सद्भाव) अवश्य ही होता है, यदि इस तरह नहीं माना जाय तो जब हेतु में अविनाभाव का प्रभाव रहता है तब उस हेतु में नियमाभाव दोष कैसे माना जायगा ?-अर्थात् नहीं माना जायगा, अविना भावरूप गुण नहीं होने से हेतु सदोष है ऐसा कथन तभी सिद्ध होगा जब पदार्थ में दोष के अभाव में गुण और गुण के अभाव में दोष माने जायें । अभावके यदि गुण रूपता नहीं है तो उसके दोष रूपता भी नहीं हो सकती। जिस प्रकार आप नेत्र में जो निर्मलता है उसे गुणरूप नहीं मानते हैं एवं गुणों की अपेक्षा लिये विना ही चक्षु आदि इन्द्रियों से प्रमाण में प्रमाणता होना स्वीकार करते हैं; उसी प्रकार अविनाभाव रहित होने रूप जो हेतु का दोष है उस दोष की अपेक्षा लिये विना यों ही अपने आप अप्रामाण्य उत्पन्न होता है अर्थात् स्वत: ही अप्रामाण्य आता है ऐसा क्यों नहीं मानते हैं ? दोनों में कोई विशेषता नहीं है-प्रामाण्य को गुणों की अपेक्षा नहीं है तो अप्रामाण्य को भी दोषों की अपेक्षा नहीं होनी चाहिये । इस प्रकार उभयत्र समानता सिद्ध होती है और उसके सिद्ध होनेपर निम्न श्लोक का अभिप्राय विरोध को प्राप्त
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