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________________ प्रामाण्यवाद: ४२१ "यथैव प्रथमज्ञानं तत्संवादमपेक्षते । संवादेनापि संवादः परो मृग्यस्तथैव हि ।। १ ॥ [ ] कस्यचित्त यदीष्येत स्वत एव प्रमाणता। प्रथमस्य तथाभावे प्रद्वषः केन हेतुना ॥ २॥ [ मी० श्लो० सू० २ श्लो० ७६ ] संवादस्याथ पूर्वेण संवादित्वात्प्रमाणता । अन्योन्याश्रयभावेन प्रामाण्यं न प्रकल्पते ॥ ३॥ [ ] इति । इत्यादि तीन के चक्र में चक्कर लगाते रहना होगा, और सिद्धि तीनों में से किसी एक को भी नहीं होगी। दूसरी बात यह है कि अर्थक्रियाके ज्ञान द्वारा प्रामाण्यका निश्चय ऐसा मान भी लेवें किन्तु फिर उस अर्थक्रिया ज्ञानका प्रामाण्य किसके द्वारा निश्चित होगा ? उसके लिये यदि अन्य अर्थक्रिया ज्ञान आयेगा तो प्रनवस्था फैलती है। यदि अनवस्थादोष को टालने के लिये ऐसा कहा जाय कि प्रथमप्रमाण से संवादकज्ञान में प्रामाण्य आयेगा तो अन्योन्याश्रयदोष उपस्थित होता है । इस प्रकार की आपत्तियों से बचने के लिये अर्थक्रियाविषयकसंवादकज्ञान को स्वतः प्रामाण्यभूत मानते हो तब तो प्रथमज्ञान में भी स्वतः प्रामाण्य स्वीकार करने में क्या द्वेष है ? कुछ भी नहीं इस विषय का विवेचन मीमांसाश्लोकवात्तिक में किया है, उसका उद्धरण इस प्रकार है __ जैन लोग "प्रथमज्ञान [किसी भी एक विवक्षित पदार्थ को जाननेवाला प्रमाण] अपनी प्रमाणता के लिये अन्य संवादकज्ञान की अपेक्षा रखता है" ऐसा मानते हैं तो वह संवादकज्ञान भी अपनी प्रमाणता के लिये अन्य संवादक की अपेक्षा रखेगा, और वह भी अन्य संवादक की, इस तरह संवादक की लम्बी झड़ो को रोकने के लिये किसी एक विवक्षित संवादक ज्ञान में स्वत: प्रमाणता स्वीकार की जावे तो प्रथमज्ञान को ही स्वतः प्रमाणभूत मानने में क्या द्वेष भाव है ? अर्थात् कुछ नहीं। अनवस्थादोष न होवे इस वजह से संवादक में प्रमाणता प्रथमज्ञान से आती है ऐसी कल्पना करें तो इतरेतराश्रय दोष आता है ।।१।।२।।३।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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