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________________ ४२२ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे अर्थक्रियाज्ञानस्यार्थाभावेऽदृष्टत्वान्न स्वप्रामाण्यनिश्चयेऽन्यापेक्षा साधनज्ञानस्य त्वर्थाभावेपि दृष्टत्वात्तत्र तदपेक्षा युक्ता; इत्यप्यसङ्गतम् ; तस्याप्यर्थमन्तरेण स्वप्नदशायां दर्शनात् । फलावाप्तिरूप त्वात्तस्य तत्र नात्यापेक्षा साधननिर्मासिज्ञानस्य तु फलावाप्तिरूपत्वाभावात्तदपेक्षा; इत्यप्यनुत्तरम् ; फलावाप्तिरूपत्वस्याप्रयोजकत्वात् । यथैव हि साधन निर्भासिनो ज्ञानस्यान्यत्र व्यभिचारदर्शनात्सत्यासत्यविचारणायां प्रेक्षावतां प्रवृत्तिस्तथा तस्यापि विशेषाभावात् । शंका – अर्थक्रियाज्ञान तो अर्थ के सद्भाव विना देखा नहीं जाता है, किन्तु उसके सद्भाव में ही देखा जाता है. अतः अर्थक्रियाज्ञान में प्रमाणता का निश्चय करने के लिये अन्य की अपेक्षा करनी नहीं पड़ती, किन्तु साधन का जो ज्ञान है वह तो प्रर्थ के अभाव में भी देखा जाता है, अतः साधनज्ञान की प्रमाणता के लिये अन्य की पेक्षा लेनी पड़ती है । समाधान - यह शंका गलत है, क्योंकि अर्थक्रियाज्ञान भी पदार्थ के विना देखा जाता है, जैसे कि स्वप्न में पदार्थ नहीं रहता है फिर भी अर्थक्रिया का ज्ञान तो होता देखा जाता है । - शंका - अर्थक्रियाज्ञान फल की प्राप्तिरूप होता है, इसलिये उसमें अन्य की अपेक्षा नहीं होती, किन्तु जो साधन को बतलानेवाला ज्ञान है वह फलप्राप्तिरूप नहीं होता, अतः उसमें अपनी प्रमाणता के लिये अन्य ज्ञान की अपेक्षा रहती है, मतलब यह है कि "यह जल है" ऐसा ज्ञान होने पर उस जलका कार्य या फल जो स्नानादिरूप है उसकी प्राप्ति में अन्यज्ञान की जरूरत नहीं पड़ती है, परन्तु स्नान का साधन जो जल है सो उसके ज्ञान में तो अन्य ज्ञान की अपेक्षा जरूर होती है, क्योंकि वह तो फलप्राप्तिरूप नहीं है । समाधान - यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि फल की प्राप्ति प्रामाण्य की प्रयोजक नहीं हुआ करती है । देखो - जिस प्रकार स्नानादिक के कारणभूत जो जलादिक पदार्थ हैं उनको प्रतिभासित करने वाले ज्ञान में कहीं [ मरीचिका में ] व्यभिचार देखने में आता है, अर्थात् "यह जल है" ऐसी प्रतीति सत्यजल में होती है और मरीचिका में भी होती है, और इसीलिये तो उस जलज्ञान के सत्य असत्य के निर्णय करने में बुद्धिमानों की प्रवृत्ति होती है, ठीक इसी तरह अर्थक्रियाज्ञान में भी होता है, अर्थात अर्थक्रिया के ज्ञान में भी सत्य असत्यका निर्णय करके प्रवृत्ति होती है कोई विशेषता नहीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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