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प्रमेयकमलमार्तण्डे
कालभाविशुक्तिकाशकलज्ञानस्य प्रामाण्यव्यवस्थापकत्वप्रसङ्गात् ।
नापि भिन्नजातीयम् ; तद्धि किमर्थक्रियाज्ञानम्, उतान्यत् ? न तावदन्यत् ; घटज्ञानात्पटज्ञाने प्रामाण्यनिश्चयप्रसङ्गात् । नाप्यर्थक्रियाज्ञानम् ; प्रामाण्यनिश्चयाभावे प्रवृत्त्याभावेनार्थक्रियाज्ञानाघटनात् । चक्रकप्रसङ्गश्च । कथं चार्थक्रियाज्ञानस्य तन्निश्चयः ? अन्यार्थक्रियाज्ञानाञ्च दनवस्था । प्रयमप्रमाणाचदन्योन्याश्रयः । अर्थक्रियाज्ञानस्य स्वतःप्रामाण्यनिश्चथोपगमे चाद्यस्य तथाभावे किंकृतः प्रद्वेषः? तदुक्तम्
ज्ञान का विषय एक तो है नहीं पृथक है, और फिर भी वह संवादकज्ञान प्रामाण्य की व्यवस्था कर देता है तब तो सीप के टुकड़े में हुए रजतज्ञान के प्रति उत्तरकाल में सीप में सीप का ज्ञान होता है वह प्रामाण्य का व्यवस्थापक है ऐसा मानना होगा, क्योंकि उसमें भिन्नविषयता तो है ही । अतः भिन्नविषयवाला सजातीय संवादकज्ञान प्रामाण्य की ज्ञप्ति में कारण है ऐसा कहना युक्तियुक्त नहीं है।
अब भिन्न जातीय संवादकज्ञान प्रामाण्य की ज्ञप्ति में कारण है ऐसा मानो तो क्या दोष है यह भी हम प्रकट करते हैं-भिन्नजातीय संवादकज्ञान कौन सा हैक्या वह अर्थक्रिया का ज्ञान है ? या और कोई दूसरा ज्ञान है ? मतलब यह है-कि प्रमाण ने "यह जल है" ऐसा जाना अब उस प्रमाण की प्रमाणिकता को बताने के लिये संवादक ज्ञान प्राता है । ऐसा जैन कहते हैं सो बताओ कि वह ज्ञान किसको जानता है ? उसी जलकी अर्थक्रिया को जो कि स्नान पान आदिरूप है उसको ? अथवा जो अन्य विषय है उसको ? वह अन्य विषय को जाननेवाला है। ऐसा कहो तो ठीक नहीं होगा क्योंकि यदि अन्यविषयक संवादकज्ञान प्रामाण्यज्ञप्ति में कारण होता है तो घटज्ञान से पटज्ञान में भी प्रामाण्य आ सकता है ? भिन्न जातीय तो वह है ही ? अर्थक्रिया का ज्ञान संवादक है ऐसा कहना भी गलत होगा, क्योंकि अभी प्रामाण्य का निश्चय तो हुआ नहीं है उसके अभाव में प्रामाण्य को ज्ञप्ति का कारण जो संवादक ज्ञान है उसका स्वविषय में [अर्थक्रिया के ग्रहण में] व्यापार होना संभव नहीं है। जो पुरुष वस्तु में प्रवृत्ति करते हैं वे पहिले अपने ज्ञान में प्रमाणता को देखते हैं-फिर जानकर प्रवृत्ति करते हैं । विना प्रवृत्ति के अर्थक्रिया का ज्ञान कैसे होगा ? अर्थात् नहीं हो सकता तथा इस तरह मानने में चक्रक दोष भी आता है देखो ! अर्थक्रिया का ज्ञान उत्पन्न होने पर पूर्वज्ञान में प्रामाण्य आना और पूर्वज्ञान में प्रामाण्य के होनेपर उसकी विषय में प्रवृत्ति होना । पुनः प्रवृत्ति होनेपर अर्थक्रिया का ज्ञान हो सकना,
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