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________________ ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवादः ३७६ ऽत्यन्तभेदात् समवायस्यापि सर्वत्राविशेषात् । 'येनात्मना यन्मनः प्रेर्यते तत्तस्य' इत्ययुक्तम् अनुपलब्धस्य प्रेरणासम्भवात् । किञ्च, ईश्वरस्यापि स्वसंविदितज्ञानानभ्युपगमे 'सदसद्वर्गः कस्यचिदेकज्ञानालम्बनोऽनेकत्वात्पञ्चांगुलवत्' इत्यत्र पक्षीकृतैकदेशेन व्यभिचारः-तज्ज्ञानान्यसदसद्वर्गयोरनेकत्वाविशेषेप्येकज्ञानालम्बनत्वाभावादेकशाखाप्रभवत्वानुमानवत् । स्वसंविदितत्वाभ्युपगमे चास्य अनेनैव प्रमेयत्वहेतोर्व्यभिचार इत्युक्तम् । 'अस्मदादिज्ञानापेक्षया ज्ञानस्य ज्ञानान्तरवेद्यत्वं साध्यते' इत्यत्राप्युक्तम् । का है । खुद अदृष्ट का नियम बन नहीं पाता कि यह अदृष्ट इसी प्रात्मा का है । अदृष्ट तो आत्मा से अत्यन्त भिन्न है-पृथक् है । समवाय से संबंध करना चाहो तो वह भी सर्वत्र समान ही है। योग - जिस आत्मा के द्वारा जो मन प्रेरित होता है वह उसका कहलाता है। जैन-यह वाक्य अयुक्त है, क्योंकि जिसकी उपलब्धि ही नहीं होती उस मन को प्रेरित करना शक्य नहीं है । पाप यौग ने ईश्वर के भी स्वसंविदित ज्ञान माना नहीं, अत: आपके द्वारा कहे हुए अनुमान में दोष आता है, सदु-असद्वर्ग अर्थात् सद्वर्ग तो द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय का समूहरूप है और असद्वर्ग प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, इतरेतराभाव और अत्यंताभाव इनरूप है सो ये दोनों ही वर्ग किसी एक ही ज्ञान के द्वारा जाने जाते हैं, क्योंकि ये अनेक रूप हैं, जैसे हाथ की पांचों अंगुलियां अनेक होने से एक ज्ञान की अवलंबन स्वरूप हैं। अब इस अनुमान में सद्वर्ग और असद्वर्ग को पक्ष बनाया है, उस पक्ष का एक भाग जो गुणों में अन्तर्भूत विज्ञान है उसके साथ इस अनेकत्व हेतु का व्यभिचार होता है । कैसे-? ऐसा बताते हैं-ईश्वर का ज्ञान और अन्य सद् असदु वर्ग ये अनेकरूप तो हैं किन्तु एक ज्ञान के अवलम्बन-एक ज्ञान के द्वारा जानने योग्य नहीं हैं, क्योंकि ये सब एक ज्ञान से जाने जायेंगे तो ज्ञान स्वसंविदित बन जायगा, जो आपको इष्ट नहीं है, इस प्रकार आपका सद्असदू वर्ग पक्षवाला उपर्युक्त अनुमान गलत ठहरता है, जैसे एक शाखाप्रभवत्व हेतुवाला अनुमान गलत होता है । अर्थात् किसी ने ऐसा अनुमानवाक्य प्रयुक्त किया कि ये सब फल पके हैं क्योंकि एक ही शाखा से उत्पन्न हुए हैं, सो ऐसा एक शाखाप्रभवत्वहेतु व्यभिचरित इसलिये हो जाता है कि एक ही शाखा में लगे होने पर भी कुछ फल तो पके रहते हैं और कुछ फल कच्चे रहते हैं, इसलिये जैसे यह अनुमान सदोष कहलाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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