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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे तस्याप्यसम्भवात् । नापि संयोगात्; सर्वत्रास्याविशेषात् । नापि 'यददृष्ट प्रेरितं प्रवर्तते निवर्तते वा तत्तस्य' इति वाच्यम् ; अचेतनस्यादृष्टा स्यानिष्ट देशादिपरिहारेणेष्ट देशादौ तत्प्रेरणासम्भवात्, अन्यथेश्वरकल्पनावैफल्यम् । न चेश्वरस्यादृष्टप्रेरणे व्यापारात्साफल्यम्, मनस एवासौ प्रेरक! कल्प्यताम् कि परम्परया? तस्य सर्वसाधारणत्वाच्चातो न तन्नियमः । चादृष्टस्यापि प्रतिनियमः सिद्धः; तस्यात्मनो इसलिये मानते हो ? पहिला पक्ष-यदि वह प्रतिनियत आत्मा का कार्य है इसलिये इस आत्मा का यह मन है ऐसा संबंध सिद्ध होता है इस तरह कहो तो ठीक नहीं, क्योंकि मन तो नित्य एवं परमाणुरूप है, अत: वह आत्माका कार्यरूप नहीं हो सकता, क्योंकि नित्य वस्तु किसी का कार्य नहीं होतो है । दूसरा हेतु-प्रतिनियत आत्मा के द्वारा उपक्रियमाण होने से यह मन इस आत्माका है इस प्रकार का संबंध बनता है सो भी बात नहीं, क्योंकि मन तो अनाधेय और अप्रहेय है-अर्थात् न उसका आरोप कर सकते हैं और न उसका स्फोट कर सकते हैं, ऐसे अतिशयशाली मन का उपकार प्रात्मा के द्वारा होना शक्य नहीं है, तीसरा विकल्प-प्रतिनियत आत्मा में संयोग होने से मन का संबंध प्रतिनियत आत्मा से बनता है, सो भी बात ठीक नहीं, क्योंकि सर्वत्र आत्माओं में उसका समानरूप से संबंध रहता है । अतः यह इसी का मन है इस प्रकार कह नहीं सकते, जिसके अदृष्ट से वह मन इष्ट में प्रवर्तित होता है और अनिष्ट से निवृत्त होता है वह उस आत्मा का मन कहलाता है सो ऐसा भी नहीं कहना चाहिये, क्योंकि अदृष्ट तो अचेतन है, वह अचेतन अदृष्ट अनिष्ट देश आदि का परिहार कर इष्ट ही वस्तु या देशादि में मन को प्रेरित करता हो सो बात शक्य नहीं है, अर्थात् अचेतन अदृष्ट में ऐसी शक्ति संभव नहीं है । यदि अचेतन भाग्य ही ऐसा कार्य करता तो ईश्वर की कल्पना क्यों करते हो। योग- ईश्वर तो अदृष्ट को प्रेरित करता है और पुन: अदृष्ट मन को प्रेरणा करने का काम करता है, अतः ईश्वर को मानना जरूरी है। जैन - यह बात ठीक नहीं, इससे तो मन को ही ईश्वर प्रेरित करता है ऐसा मानना श्रेयस्कर होगा, क्यों बेकार ही परंपरा लगाते हो कि महेश्वर के द्वारा पहिले अदृष्ट प्रेरणा पाता है पुनश्च उस अदृष्ट से मन प्रेरणा पाता है। एक बात और भी बताते हैं कि अदृष्ट तो सर्व साधारण कारण है, कोई विशेष कारण तो है नहीं, अतः उस अदृष्ट से आत्मा के साथ मन का नियम नहीं बनता है; कि यह मन इसी प्रात्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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