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ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवादः
सिद्धो वा न संयोगः, निरंश्योरेकदेशेन संयोगे सांशत्वम् । सर्वात्मनैकत्वम् उभयव्याघातकारि स्यात् । 'यत्र संयुक्त ं मनस्तत्र समवेते ज्ञानमुत्पादयति' इत्यभ्युपगमे चाखिलात्मसमवेतसुखादौ ज्ञानं जनयेत् तेषां नित्यव्यापित्वेन मनसा संयोगोऽविशेषात् । तथा च प्रतिप्राणि भिन्न मनोन्तरं व्यर्थम् । यस्य यन्मनस्तत्तत्समवायिनि ज्ञानहेतुरित्यप्यसारम्, प्रतिनियतात्मसम्बन्धित्वस्यैवात्रासिद्ध ेः । तद्धि तत्कार्यत्वात्, तदुपक्रियमाणत्वात्, तत्संयोगात्, तददृष्ट प्रेरितत्वात् तदात्मप्रेरितत्वाद्वा स्यात् ? न तावत्तत्कार्यत्वेन तत्सम्बन्धिता; नित्ये तदयोगात् । नाप्युपक्रियमाणत्वेन; अनाधेयाप्रहेयातिशये
यदि उस आत्मा का और मन का संयोग सर्वदेश से मानते हो तो दोनों एक मेक होने से दोनों का अस्तित्व समाप्त हो जाता है, एक ही कोई बचता है, या तो आत्मा सिद्ध होगा या मन । आत्मा और मन ऐसे दो पदार्थ स्वतन्त्ररूप से सिद्ध नहीं हो सकेंगे ।
योग - जिस श्रात्मा में मन संयुक्त हुआ है उसी श्रात्मा में समवेतरूप से रहे हुए सुखादिकों में वह मन ज्ञान को पैदा करा देता है, इस तरह आत्मा श्रौर मन दोनों की स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध होती है ।
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जैन - ऐसा मानने पर भी यह आपत्ति आती है कि संसार में जितने भी जीव हैं उन सबके सुख आदि का वह एक ही मन सब को ज्ञान पैदा कर देगा, क्योंकि सभी आत्माएँ नित्य और व्यापक हैं । अत: उनका मन के साथ संयोग तो समानरूप से है ही, इस प्रकार एक ही मन से सारी प्रात्माओं में सुख दुःख आदि के ज्ञान को पैदा करा देने के कारण प्रत्येक प्राणियों के भिन्न २ मन नहीं रहेगी ।
मानने की जरूरत
योग - जिस आत्मा का जो मन होता है वही मन उस हुए सुखादिक का ज्ञान उसे उत्पन्न कराता है, सब को नहीं अतः आवश्यकता होगी ही ।
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जैन - ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि प्रत्येक आत्मा के साथ "यह इसका मन है" इस प्रकार का मन का संबंध होना ही प्रसिद्ध है । यदि प्रतिनियत श्रात्मा के साथ मन का संबंध मानते हो तो क्यों मानते हो ? क्या वह उसी एक निश्चित आत्मा का कार्यरूप है इसलिये मानते हो, या प्रतिनियत आत्मा से वह उपकृत है इसलिये मानते हो, या प्रतिनियत श्रात्मा में उस विवक्षित मन का संयोग है, या एक ही निश्चित आत्मा के अदृष्ट से वह प्रेरित होता है, अथवा स्वयं उस
आत्मा से वह प्रेरित होता है
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आत्मा में समवेत भिन्न २ मन की
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