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प्रमेयकमलमार्तण्डे
पगतेन मनसैवानेकान्तात् । न हि तत्साकल्ये तत् तथाभूतमपि क्रमवत्कारणान्तरापेक्षमनवस्थाप्रसङ्गात् । किञ्च, अनुत्पाद्योत्पादकत्वं युगपत्, क्रमेण वा ? युगपचे द्विरुद्धो हेतुः, तथोत्पादकत्वस्याऋमिकारणाधीनत्वात् प्रसिद्ध सहभाव्यनेककार्यकारिसामग्रीवत् । क्रमेण चेदसिद्धः, कर्कटीभक्षणादौ युगपद्रूपादिज्ञानोत्पादकत्वप्रतीतेः । आशुवृत्त्या विभ्रमकल्पनायां तूक्तम् । तन्न मनसः सिद्धिः ।
का मतलब क्या है ? उत्पन्न न कर पीछे एक साथ उत्पन्न करना ऐसा है अथवा क्रम से उत्पन्न करना ऐसा है ? यदि एक साथ उत्पन्न करना ऐसा अनुत्पाद्य उत्पादकत्व का अर्थ है तो हेतु विरुद्ध दोष युक्त हो जायेगा, अर्थात् क्रमवत्कारण को वह सिद्ध न कर अक्रमवत्कारण को ही सिद्ध करेगा। जैसे "नित्यः शब्दः कृतकत्वात्" शब्द नित्य है क्योंकि वह किया हुआ होता है, ऐसा अनुमान में दिया गया हेतु जैसे शब्द में नित्यत्व सिद्ध न कर उल्टे अनित्यत्व की सिद्धि कर देता है वैसे ही चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा क्रमिक ज्ञान उत्पन्न कराने के लिये अनुत्पाद्य उत्पादकत्व हेतु का अर्थ युगपत् ऐसा करते हैं तो उस हेतु द्वारा साध्य से विपरीत जो अक्रमता है वही सिद्ध होती है, क्योंकि जो उस प्रकार का एक साथ उत्पादकपना तो अक्रमिक कारणों के ही प्राधीन होता है, जैसे प्रसिद्ध सहभावी अनेक कार्यों को करने वाली सामग्रो हुआ करती है, मतलबपृथिवी, हवा, जल आदि सामग्री जिनके साथ है ऐसे अनेक बीज अनेक अंकुरों को एक साथ ही पैदा कर देते हैं । यहां पर अनेक अंकुररूप कार्य अक्रमिक पृथ्वी जल आदि के प्राधीन हैं । यदि दूसरा पक्ष लेते हैं कि अनुत्पाद्य उत्पादकत्व क्रम से है तो यह हेतु असिद्ध दोष युक्त होता है, कैसे ? सो बताते हैं-ककड़ी या कचौड़ी आदि के भक्षण करते समय चक्षु आदि इन्द्रियां रूप आदि के ज्ञानों को एक साथ पैदा करती हुई प्रतीत होती है, तुम कहो कि वहां अतिशीघ्रता से रूप आदि का ज्ञान होता है, अत: मालूम पड़ता है कि एक साथ सब ज्ञान पैदा हुए, सो इस विषय में अभी २ दूषण दिया था कि इस तरह से प्राशुवृत्ति के कारण ज्ञानों में एक साथ होने का भ्रम सिद्ध करते हो तो अन्योन्याश्रय दोष होता है, अत: आपके किसी भी हेतु से मन की सिद्धि नहीं हो पाती है।
जैसे तैसे मान भी लेवें कि आपके मत में कोई मन नामकी वस्तु है तो उस मन का आत्मा के साथ संयोग होना तो नितरां प्रसिद्ध है क्योंकि आपके यहां प्रात्मा और मन दोनों को ही निरंश बताया है, सो उन निरंशस्वरूप आत्मा और मन का एक देश से संयोग होना स्वीकार करते हो तो उन दोनों में सांशपना आ जाता है,
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