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________________ ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवाद न च मनोपि सूच्यग्रवन्मू-मिन्द्रियाणि तूत्पलपत्रवत्परस्परपरिहारस्थितानि युगपत्प्राप्तुन समर्थमिति वाच्यम् ; तथाभूतस्यास्याऽसिद्ध: । युगपज्ज्ञानोत्पत्तिविभ्रमात्तत्सिद्धौ परस्पराश्रयः तद्विभ्रमसिद्धौ हि मनःसिद्धिः, ततस्तद्विभ्रमसिद्धिरिति । 'चक्षुरादिकं क्रमवत्कारणापेक्षं कारणान्तरसाकल्ये सत्यप्यनुत्पाद्योत्पादकत्वाद्वासीकत र्यादिवत्' इत्यनुमानात्तत्सिद्धिरित्यपि मनोरथमात्रम् ; भवदभ्यु इन्द्रियों को एक साथ प्राप्त नहीं हो सकता है, बस, इसी कारण एक साथ विशेषण आदि के ज्ञान न होकर वे शीघ्रता से होते हैं । और मालूम पड़ता है कि ये एक साथ हुए हैं। जैन--ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि इस प्रकार के लक्षणवाले मन की प्रसिद्धि है । यदि आप एक साथ ज्ञानों की उत्पत्ति के भ्रम से मन की सिद्धि करना चाहते हैं अर्थात् “युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसोलिङ्ग” एक साथ अनेक ज्ञान उत्पन्न नहीं होना यही मन को सिद्ध करने वाला हेतु है ऐसा मानते हो तो अन्योन्याश्रय दोष पाता है इसीको बताते हैं - जब एक साथ ज्ञानों के उत्पन्न होने का भ्रम सिद्ध होवे तब मन की सिद्धि होगी और मन के सिद्ध होने पर एक साथ ज्ञान उत्पन्न होने का भ्रम सिद्ध होवे । इस प्रकार के दोष से किसी की भी सिद्धि नहीं होती है। योग-हम अनुमान के द्वारा मन की सिद्धि करते हैं-चक्षु आदि इन्द्रियां किसी क्रमवान् कारण की अपेक्षा रखती हैं, क्योंकि अन्य प्रकाश आदि कारणों की पूर्णता होते हुए भी वे इन्द्रियां उत्पन्न करने योग्य को ( ज्ञानों को ) उत्पन्न नहीं करती हैं। जैसे कैंची या वसूला किसी एक क्रमिक कारण की ( उत्थानपतनक्रियापरिणत हाथों की ) अपेक्षा रखते हैं इसी वजह से वे एक साथ काटने का काम नहीं कर पाते हैं। जैन-यह कथन भी मनोरथमात्र है, देखो ऐसा मानने से आपके ही मन के साथ व्यभिचार आता है । मन तो कारणान्तरों की साकल्यता होने पर क्रमवान् किसी अन्य कारण की अपेक्षा नहीं रखता है, अत: यह हेतु "कारणान्तरसाकल्ये सति अनुत्पाद्य उत्पादकत्वात्' अनैकान्तिक होता है । यदि मन को भी क्रमवान् कारण की अपेक्षा रखनेवाला मानोगे तब तो अनवस्था दोष आवेगा। एक बात यहां विचार करने की है-कि आपने अनुमान में हेतु दिया था "कारणान्तरसाकल्ये सत्यपि अनुत्पाद्य उत्पादकत्वात्" सो इसमें अनुत्पाद्य उत्पादकत्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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