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________________ ३७४ प्रमेयकमलमार्तण्डे दृष्टान्तमात्रेण निषेधविरोधाच्च, अन्यथा शुक्ले शङ्ख पीतविभ्रमदर्शनात्सुवर्णेपि तद्विभ्रमः स्यात् । मूर्तस्य सूच्यग्रस्यौत्तराधर्यस्थितमुत्पलपत्रशतं युगपत्प्राप्तुमशक्त': क्रमच्छेदेप्याशुवृत्त्या योगपद्याभिमानो युक्तः, पुसस्तु स्वावरणक्षयोपशमापेक्षस्य युगपत्स्वपरप्रकाशनस्वभावस्य समग्रेन्द्रियस्याप्राप्तार्थग्राहिण: स्वयममूर्तस्य युगपत्स्वविषयग्रहणे विरोधाभावात् किन्न युगपज्ज्ञानोत्पत्तिः ? योग-विशेषणज्ञान और विशेष्यज्ञान होते तो क्रम से हैं किन्तु वे आशु-शीघ्र होते हैं अत: हमको ऐसा लगता है कि एक साथ दोनों ज्ञान हो गये, जैसे-कमल के सौ पत्तों को किसी पैनी छुरी से काटने पर मालूम पड़ता है कि एक साथ सब पत्ते कट गये। जैन—यह उदाहरण असंगत है, इस तरह से कहोगे तो संपूर्ण पदार्थ क्षणिक सिद्ध हो जावेंगे क्योंकि सभी घट पट प्रादि पदार्थों में आशुवृत्ति के कारण एकत्व अध्यवसाय-ज्ञान होने लगेगा, अर्थात् ये सब पदार्थ एकरूप ही हैं ऐसा मानना पड़ेगा। प्रत्यक्ष के द्वारा जिसका प्रतिभास हो चुका है उसका दृष्टान्तमात्र से निषेध नहीं कर सकते, अर्थात् विशेषणज्ञान और विशेष्यज्ञान एक साथ होते हुए प्रत्यक्ष में प्रतीत हो रहे हैं तो भी कमलपत्रों के छेद का उदाहरण देकर उनको क्रम से होना सिद्ध करें-अक्रम का निषेध करें तो ठीक नहीं है । अन्यथा सफेद शंख में पीलेपन का भ्रमज्ञान होता हुआ देखकर वास्तविक पीले रंगवाले सुवर्ण में भी पीले रंग का निषेध करना पड़ेगा, बात तो यह है कि मूर्तिमान ऐसी सुई आदि का अग्रभाग ऊपर नीचेरूप से रखे उन कमल पत्रों को एक साथ काट नहीं सकता है, अत: उनमें तो मात्र एक साथ काटने का भान ही होता है, वास्तविक तो एक साथ न कटकर वे पत्ते क्रम से ही कटते हैं । किन्तु आत्मा के ज्ञान के विषय में ऐसी बात नहीं बनती प्रात्मा तो अपने ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम को प्राप्त हुआ है अत: उसमें एक साथ अपना और अन्य वस्तुओं को जानने का स्वभाव है, इसके संपूर्ण इन्द्रियां भी मौजूद हैं, अप्राप्त पदार्थ को ग्रहण करने वाला है-अर्थात् बिना सन्निकर्ष के ही पदार्थ को जानने के स्वभाववाला है, ऐसा स्वयं अमूर्त आत्मा यदि एक साथ अनेक विषयों को ग्रहण करले तो इसमें कोई विरोध का प्रसंग नहीं आता है अतः विशेषण आदि ज्ञान उसे एक साथ क्यों नहीं हो सकते, अवश्य हो सकते हैं । योग-मन तो सुई के अग्रभाग के समान मूर्त है, तथा चक्षु आदि इन्द्रियां कमलपत्रों के समान एक दूसरे का परिहार करके स्थित हैं, अत: वह मन उन सब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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