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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे स्वाद् घटपटज्ञानवत् । न खलु घटज्ञानस्य पटज्ञानं फलम् । न चान्यत्र व्यापृते विशेषणज्ञाने ततोऽर्थान्तरे विशेष्ये परिच्छित्तियुक्ता । न हि खदिरादावुत्पतननिय(प)तनव्यापारवति परशी ततोऽन्यत्र धवादी छिदिक्रियोत्पद्यते इत्येतत्प्रातीतिकम् । लिङ्गज्ञानस्यानुमानज्ञाने व्यापारदर्शनादत्राप्य विरोध इत्यप्यसम्भाव्यं तद्वत्क्रमभावेनात्र ज्ञानद्वयानुपलब्धः, एकमेव हि तयोर्ग्राहकं ज्ञानमनुभूयते । न चात्र तो प्रमाण और फल की व्यवस्था नहीं बनती, मतलब-विशेषण ज्ञान प्रमाण है और विशेष्यज्ञान उसका फल है ऐसा आपने' माना है वह गलत होता है, क्योंकि यहां पर आपने विशेषणज्ञान और विशेष्यज्ञान का विषय पृथक् पृथक् मान लिया है । जिस प्रकार घट ज्ञान और पट ज्ञान का विषय न्यारा न्यारा घट और पट है वैसे ही विशेषण और विशेष्य ज्ञानों का विषय न्यारा न्यारा बताया है, घट ज्ञान का फल पट ज्ञान होता हो सो बात नहीं है, अन्य विषय को जानने में लगा हुआ ज्ञान उससे पृथक विषय को जानता है ऐसा प्रतीत नहीं होता है, अर्थात् विशेषणत्व जो नीलत्व या दण्ड आदि हैं उसे जो ज्ञान जान रहा है वह विशेषणज्ञान उस नीलत्वादिविशेषण से पृथक् ऐसे कमल या दण्डवाले आदि विशेष्य को जानता हो ऐसा अनुभव में नहीं आता है। इसी बात को और भी उदाहरण देकर समझाते हैं कि खदिर आदि जाति के वृक्ष पर जो कुठार छेदन क्रिया करते समय उसका नीचे पड़ना, फिर ऊचे उठना इत्यादिरूप व्यापार है तो वह व्यापार उस खदिर से भिन्न धव अादि जाति के वृक्ष पर नहीं होता है अर्थात् कुठार का प्रहार तो होवे खदिर वृक्ष पर और कट जाय धववृक्ष जैसे ऐसा नहीं होता उसी प्रकार विशेषण ज्ञान विशेषण को तो विषय कर रहा हो, और जानना होवे विशेष्य को सो ऐसा भी नहीं होता, अखिल जन तो यही मानता है कि मैं विशेषणज्ञान से विशेषण को और विशेष्यज्ञान से विशेष्य को जानता हूं, इससे विपरीत मान्यता प्रतीति का अपलाप करना है । योग-जिस प्रकार अनुमान में लिंग ज्ञान का व्यापार होता हुआ देखा गया है, उसी प्रकार इन ज्ञानों में भी हो जायगा, अर्थात्-हेतुरूप जो धूमादि है उसके ज्ञान के द्वारा अग्नि आदि का ज्ञान होता है कि नहीं ? यदि होता है तो उसी तरह से विशेषणज्ञान भी विशेष्य के जानने में प्रवृत्त हो जायेगा कोई विरोधवाली बात नहीं है। जैन-यह कथन असंभव है, जैसे हेतु और अनुमान ज्ञानों में क्रमभाव होने से दो ज्ञान उपलब्ध हो रहे हैं वैसे विशेषण और विशेष्य में क्रमभाव से दो ज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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