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ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवादः
विशेषणज्ञानस्य करणत्वाद्विशेष्यज्ञानस्य तत्फलत्वेनं क्रियात्वात्तयोर्भेद एवेत्यपि श्रद्धामात्रम् ; 'विशेषणज्ञानेन विशेष्यमहं जानामि' इति प्रतीत्यभावात् । 'विशेषणज्ञानेन हि विशेषण विशेष्यज्ञानेन च विशेष्यं जानामि' इत्यखिलजनोऽनुमन्यते।
किञ्च, अनयोविषयो भिन्नः, अभिन्नो वा। प्रथमपक्षे-विशेषणविशेष्यज्ञानद्वयपरिकल्पना व्यर्थाऽर्थभेदाभावाद्धारावाहिविज्ञानवत् । द्वितीयपक्षे चानयोः प्रमाणफलव्यवस्थाविरोधोऽर्थान्तरविषय
मत में प्रवेश हो जाने का प्रसङ्ग भी प्राता है। क्योंकि वे ही सर्वथा ज्ञान में कर्मत्व का विरोध मानते हैं । आप यौग तो ज्ञान दूसरे ज्ञान के लिये कर्मरूप हो जाता है ऐसा मानते हैं । इस प्रकार का परमत प्रवेश का प्रसंग हटाने के लिये आप यदि ज्ञानान्तर की अपेक्षा कर्मरूप बनता है ऐसा मानते हैं तब तो उस ज्ञान को स्वरूप की अपेक्षा से भी कर्मत्वरूप मानना चाहिये, क्योंकि ज्ञान तो सूर्य के समान स्व और पर को प्रकाशित करने वाले स्वभाव से युक्त है।
आपको एक बात हम बताते हैं कि ज्ञान की क्रिया में जिस प्रकार कर्मत्व का विरोध दिखलायी देता है उसी प्रकार उसमें करणत्व का भी विरोध दिखलाई देता है। कर्मत्व और करणत्व दोनों रूपों की ज्ञान से भिन्नता तो समान ही है, कोई विशेषता नहीं है। इस प्रकार ज्ञान में करणपने का भी विरोध आने पर "ज्ञान के द्वारा मैं पदार्थ को जानता हूं" इस तरह की ज्ञान की करणपने से प्रतीति नहीं हो सकेगी।
योग-विशेषणज्ञान करणरूप होता है और विशेष्य ज्ञान उसके फलस्वरूप होता है, इस प्रकार करणज्ञान और क्रियाज्ञान में भेद माना है, इसलिये कर्मत्व आदि की व्यवस्था बन जायगी।
जैन-यह कथन भी श्रद्धामात्र है, देखिये-विशेषणज्ञान के द्वारा मैं विशेष्य को जानता हूं ऐसी प्रतीति तो किसी को भी नहीं होती है। विशेषज्ञान के द्वारा विशेषण को और विशेष्य के ज्ञान द्वारा विशेष्य को जानता हूं ऐसी सभी जनों को प्रतीति होती है । अब यहां पर विचार करना होगा कि विशेषण ज्ञान और विशेष्यज्ञान इन दोनों का विषय पृथक् है या अपृथक् है ? यदि दोनों ज्ञानों का विषय अपृथक् है तो विशेषणज्ञान और विशेष्यज्ञान ऐसी दो ज्ञानों की कल्पना करना व्यर्थ है । क्योंकि पदार्थ में तो कोई भेद नहीं है । जैसे कि धारावाहिक ज्ञान में विषय भेद नहीं रहता है। दूसरा विकल्प-अर्थात् दोनों ज्ञानों का विषय पृथक् है ऐसा स्वीकार किया जाय
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