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________________ प्रात्माप्रत्यक्षत्ववादः ३४५ परित्यक्तपुत्रसुखाद्य पलम्भाच्च तत्प्रसङ्गात् । विग्रहादिकमतिसन्निहितमपि आभिमानिकसुखमन्तरेणा नुग्रहादिकं न विदधातिकिमङ्ग पुनरतिव्यवहिताः पुत्रसुखादयः । अस्तु नाम सुखादेः प्रत्यक्षता, सा तु प्रमाणान्तरेण न स्वतः 'स्वात्मनि क्रियाविरोधात्' इत्यन्यः, तस्यापि प्रत्यक्षविरोधः । न खलु घटादिवत् सुखाद्यविदितस्वरूपं पूर्वमुत्पन्न पुनरिन्द्रियेण सम्बद्धयते ततो ज्ञानं ग्रहणं चेति लोके प्रतीतिः । प्रथममेवेष्टानिष्ट विषयानुभवानन्तर स्वप्रकाशात्मनो आदि का अनुभव भी हम नहीं कर सकते हैं । किन्तु मैं सुखी हूं इत्यादिरूप से प्रत्येक प्राणी को प्रतिक्षण प्रतीति हो रही है, इसीसे सिद्ध होता है कि हमारा ज्ञान और आत्मा स्वसंवेदनस्वरूप अवश्य ही है । इस पर शंका उपस्थित हुई कि इष्ट व्यक्ति के सुख दुःख अादि से हम सुखी तो हो जाते हैं तो जैसे वे पर के सुखादिक हमारे संवेदन में नहीं हैं अर्थात् परोक्ष हैं फिर भी उसके द्वारा हम में अनुग्रहादि होते हैं, वैसे ही अपने ज्ञानादि परोक्ष हों तब भी उससे पदार्थ का प्रतिभास तो हो ही जायगा तब प्राचार्य ने कहा कि यह तो औपचारिक कथन होता है कि मेरे इस पुत्र के सुख से मैं भी सुखी हूं इत्यादि, वास्तविक बात तो यह है मोह या अभिमान आदि के कारण हम पर के सुख में सुखी हैं ऐसा कह देते हैं, पर जब वह मोह किसी कारण से हट जाता है तब पर की तो बात ही क्या है अपने शरीर के सुख आदि का भी अनुभव नहीं आता है । अतः ज्ञानादि परोक्ष रहकर पदार्थ को जानते हैं यह बात सुखादि के उदाहरण से सिद्ध नहीं होती है। यहां पर जब जैनाचार्य ने सुख दुःख आदि को प्रत्यक्ष होना सिद्ध किया तब कोई अपना पक्ष रखता है कि जैन लोग सुख दुःख आदि को प्रत्यक्ष मान लेवें किन्तु उन सुखादि की प्रत्यक्षता तो किसी भिन्न प्रमाण से होनी चाहिये, स्वतः नहीं, क्योंकि अपने आप में क्रिया नहीं होती है, इसप्रकार किसी नैयायिक ने कहा, तब प्राचार्य उत्तर देते हैं कि इस प्रकार भिन्न प्रमाण से सुखादि का प्रत्यक्ष होना मानो तो साक्षात विरोध होगा, देखिये -जिस प्रकार घट पट आदि वस्तुत्रों का स्वरूप पहले अज्ञात रहता है और फिर उनका इन्द्रियों से संबंध होता है तब जाकर ज्ञान उत्पन्न होकर उन वस्तुओं को ग्रहण करता है, उस तरह से सुख आदि का स्वरूप पहले अज्ञात रहे फिर इन्द्रिय-सम्बन्ध होकर ज्ञान हो इस रूप से सुखादि में प्रक्रिया होती हुई प्रतीत नहीं होती, किन्तु प्रथम ही अपने को इष्ट अनिष्ट वस्तुओं का अनुभव होता है, अनन्तर स्वप्रकाशस्वरूप ज्ञान उदित होता है, आपने "स्वात्मनि क्रियाविरोधः" अपने में क्रिया ४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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