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________________ ३४४ प्रमेयकमलमार्तण्डे प्यर्थप्रतिभासो भविष्यति इत्यप्यविचारित रमणीयम् ; सुखादेः संवेदनादर्थान्तरस्वभावस्याप्रतिभासनादाह्लादनाकारपरिणतज्ञानविशेषस्यैव सुखत्वात्. तस्य चाध्यक्षत्वात् तस्यानध्यक्षत्वेऽत्यन्ताप्रत्यक्षज्ञानग्राह्यत्वे च-अनुग्रहोषघातकारित्वासम्भवः, अन्यथा परकीयसुखादीनामप्यात्मनोऽत्यन्ताप्रत्यक्षज्ञानग्राह्याणां तत्कारित्वप्रसङ्गः । ननु पुत्रादिसुखाद्य प्रत्यक्षत्वेपि तत्सद्भावोपलम्भमात्रादात्मनोऽनुग्रहाधे पलभ्यते तत्कथमयमेकान्तः ? इत्यप्यशिक्षितलक्षितम् ; नहि तत्सुखाद्य पलम्भमात्रात् सौमनस्यादिजनिताभिमानिकसुखपरिणतिमन्तरेणात्मनोऽनु ग्रहादिसम्भवः, शत्रसुखाद्य पलम्भाद्दुश्चेष्टितादिना होवेगा, यदि हमारे सुखादिक हमारे से अप्रत्यक्ष हैं, फिर भी वे हमारे लिये उपघात एवं अनुग्रहकारी होते माने जावें तो फिर दूसरे जीव के सुख दुःख आदि से भी हमें अनुग्रह आदिक होने लग जावेंगे, क्योंकि जैसे हम से हमारे सुखादिक अप्रत्यक्ष हैं वैसे ही पराये व्यक्ति के भी वे हमसे अप्रत्यक्ष हैं फिर क्या कारण है कि हमारे ही सुखादिक से हमारा अनुग्रहादि होता है और पराये सुखादि से वह नहीं होता है। शंका-पुत्र, स्त्री, मित्र आदि इष्ट व्यक्तियों के सुख दुःख आदि हमको प्रत्यक्ष नहीं होते हैं तो भी उनके सुखादि को देखकर हमको भी उससे अनुग्रहादि होने लग जाता है, अतः यह एकान्त कहां रहा कि सुखादि प्रत्यक्ष हो तभी उनसे अनुग्रहादि होवें। जैन-यह कथन अज्ञान पूर्ण है, हमारे से भिन्न जो पुत्र आदिक हैं उनके सुखादिक का सदभावमात्र जानने से हमें कोई उससे अनुग्रहादिक नहीं होने लग जाते, हां, इतना जरूर होता है कि अपने इष्ट व्यक्ति के सुखी रहने से हमें भी प्रसन्नता आदि आती है और हम कह भी देते हैं कि उसके सुखी होने से मैं भी सुखी हो गया इत्यादि, यदि दूसरों के सुखादि से अपने को अनुग्रह होता तो शत्रुके सुख से या खोटे आचरण के कारण छोड़े गये पुत्रादि के सुख से भी हम में अनुग्रह होना चाहिये, किन्तु ऐसा होता तो नहीं। देखिये-पर के सुख की बात तो छोड़िये, किन्तु जब हम उदास या वैरागी हो जाते हैं तब अपने खुद के शरीर का सुख या दुःख भी हम में अनुग्रहादि करने में असमर्थ होता है । जो कि शरीर अति निकटवर्ती है, ऐसी हालत में हमसे अतिशय भिन्न पुत्र प्रादि के सुखों से हमको, किस प्रकार अनुग्रह आदि हो सकते हैं । अर्थात् नहीं हो सकते हैं। भावार्थ-प्रभाकर ज्ञान और आत्मा को परोक्ष मानते हैं, अतः प्राचार्य उन्हें समझाते हैं कि हमारी स्वयं की प्रात्मा ही हमको प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगी तो सुख दुःख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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