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________________ श्रात्माप्रत्यक्षत्ववादः यथैव हि घटस्वरूपप्रतिभासो घटशब्दोच्चारणमन्तरेणापि प्रतिभासते । तथा प्रतिभासमानत्वाच्च न शाब्दस्तथा प्रमात्रादीनां स्वरूपस्य प्रतिभासोपि तच्छब्दोच्चारणं विनापि प्रतिभासते । तस्म।च्च न शाब्दः । तच्छब्दोच्चारणं पुनः प्रतिभातप्रमात्रादिस्वरूप प्रदर्शनपरं नाऽनालम्बनमर्थवत्, अन्यथा 'सुख्यहम्' इत्यादिप्रतिभासस्याप्यनालम्बनत्वप्रसङ्गः । ननु यथा सुखादिप्रतिभासः सुखादिसंवेदनस्याप्रत्यक्षत्वेप्युपपन्नस्तथार्थ संवेदनस्याप्रत्यक्षत्वेहै" ऐसा वाक्य नहीं बोले तो भी घट का स्वरूप हमें प्रतीत होता है, क्योंकि वैसा हमें अनुभव ही होता है, यह प्रतीति केवल शब्द से होने वाली तो है नहीं, ऐसे ही प्रमाताआत्मा, प्रमाण - ज्ञानादि का भी प्रतिभास उस उस आत्मा श्रादि शब्दों का उच्चारण विना किये भी होता है । इसलिये प्रमाता आदि की प्रतिपत्ति मात्र शाब्दिक नहीं है, आत्मा आदि का नामोच्चारण जो मुख से करते हैं वह तो अपने को प्रतिभासित हुए आत्मादि के स्वरूप बतलाने के लिये करते हैं । यह नामोच्चारण जो होता है वह विना प्रमाता आदि के प्रतिभास हुए नहीं होता है । जैसे कि घट आदि नामोंका उच्चारण विना घट पदार्थ के प्रतिभास हुए नहीं होता है, यदि अपने को अन्दर से प्रतीत हुए इन प्रमाता श्रादि को अनालंबन रूप माना जाय तो "मैं सुखी हूं" इत्यादि प्रतिभास भी विना आलंबन के मानना होगा, किन्तु "मैं सुखी हूं" इत्यादि वाक्यों को हम मात्र शाब्दिक नहीं मानते हैं, किन्तु सालम्बन मानते । बस ! वैसे ही प्रमाता आदि का प्रतिभास भी वास्तविक मानना चाहिये ; निरालम्बरूप नहीं । ३४३ शंका - जिस प्रकार सुख दुःख श्रादि का प्रतिभास सुखादि के संवेदन के परोक्ष रहते हुए भी सिद्ध होता है वैसे ही पदार्थों को जानने वाले जो ज्ञान या प्रात्मा आदिक हैं वे भी परोक्ष रहकर भी प्रसिद्ध हो जायेंगे । Jain Education International समाधान - यह कथन विना सोचे ही किया है, देखो - सुख प्रादि जो हैं वे संवेदन से- (ज्ञान से ) - पृथक् हैं ऐसा प्रतिभास नहीं होता है, क्योंकि प्रह्लादनाकार से परिणत हुआ जो ज्ञानविशेष है वही सुखरूप कहा जाता है, ऐसे सुखानुभव में तो प्रत्यक्षता रहती ही है, यदि ऐसे सुखानुभव में परोक्षता मानी जाय और उसे अत्यन्त परोक्ष ज्ञान के द्वारा गृहीत हुआ स्वीकार किया जाय तो उसके द्वारा होने वाले अनुग्रह और उपघात नहीं हो सकेंगे, अर्थात् हमारे सुख और दुःख हमें परोक्ष हैं तो सुख से प्रह्लाद, तृप्ति, आनंद आदिरूप जो जीव में अनुग्रह होता है और दुःख से पीड़ा, शोक, संताप आदिरूप जो उपघात होता है वह नहीं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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