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________________ ३४२ प्रमेयकमलमार्तण्डे भिन्नयोः सर्वथा परोक्षत्वविरोधात् । ननु शाब्दी प्रतिपत्तिरेषा 'घटमहमात्मना वेद्मि' इति नानुभवप्रभावा तस्यास्तदविनाभावाभावात्, अन्यथा अंगुल्यग्रे हस्तियूथशतमास्ते' इत्यादिप्रतिपत्तेरप्यनुभवत्वप्रसङ्गस्तत्कथमतः प्रमात्रादीनां प्रत्यक्षताप्रसिद्धिरित्याह शब्दानुच्चारणेपि स्वस्यानुभवनमर्थवत् ।। १० ॥ तो है नहीं, अतः प्रमिति में प्रत्यक्षता होने पर प्रात्मा और ज्ञान भी प्रत्यक्ष हो जाते हैं। यदि आप प्रभाकर प्रमिति को आत्मा और ज्ञान से सर्वथा भिन्न ही मानते हैं तो प्रापका नैयायिकमत में प्रवेश होने का प्रसङ्ग प्राप्त होता है, क्योंकि उनकी ही ऐसी मान्यता है, तथा यदि प्रमिति को उन दोनों से सर्वथा अभिन्न ही मानते हो तो बौद्ध मत में प्रवेश होने का प्रसङ्ग प्राप्त होता है, क्योंकि वे ऐसा ही सर्वथा भेद या अभेद मानते हैं। इसलिये सौगत और नैयायिक के मत में प्रवेश होने से बचना है तो प्रमिति को आत्मा और ज्ञान से कथंचित् अभिन्न मानना चाहिये, तब तो उन दोनों में इस मान्यता के अनुसार कथंचित् प्रत्यक्षपना भी पा जावेगा, क्योंकि प्रत्यक्षरूप प्रमिति से वे आत्मादि पदार्थ कथंचित् अभिन्न हैं । अतः वे सर्वथा परोक्ष नहीं रह सकेंगे । प्रत्यक्ष से जो अभिन्न होता है उसका सर्वथा परोक्ष होने में विरोध पाता है। शंका- 'मैं अपने द्वारा घट को जानता हूं" इस प्रकार की जो प्रतिपत्ति है वह शब्दस्वरूप है, अनुभवस्वरूप नहीं है, क्योंकि इस प्रतिपत्ति का अनुभव के साथ अविनाभाव नहीं है । यदि इस प्रतिपत्ति को अनुभवस्वरूप माना जावे तो "अंगुली के अग्रभाग पर सैंकड़ों हाथियों का समूह है" इत्यादि शाब्दिक प्रतिपत्ति को भी अनुभवस्वरूप मानना पड़ेगा, अतः इस शब्द प्रतिपत्ति मात्र से प्रमाता, प्रमाण आदि में प्रत्यक्षता कैसे सिद्ध हो सकती है । अर्थात् नहीं हो सकती । मतलब-मैं अपने द्वारा घट को जानता हूं इत्यादि वचन तो मात्र वचनरूप ही हैं। वैसे संवेदन भी हो ऐसी बात नहीं है, इसलिये इस वाक्य से प्रमाता आदि को प्रत्यक्षरूप होना कैसे सिद्ध हो सकता है ? समाधान-इस प्रकार की शंका उपस्थित होने पर श्री माणिक्यनंदी प्राचार्य स्वयं सूत्रबद्ध समाधान करते हैं सूत्र-शब्दानुच्चारणेऽपि स्वस्यानुभवनमर्थवत् ।। १० ।। सूत्रार्थ-शब्दों का उच्चारण किये विना भी अपना अनुभव होता है, जैसे कि पदार्थों का घट आदि नामोच्चारण नहीं करें तो भी उनका ज्ञान होता है, “घट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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