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________________ ३४६ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे ऽस्योदयप्रतीतेः । स्वात्मनि क्रियाविरोधं चानन्तरमेव विचारविष्यामः । यदि चार्थान्तरभूत प्रमाणप्रत्यक्षाः सुखादयस्तहि तदपि प्रमाणं प्रमाणान्तरप्रत्यक्षमित्यनवस्था । विभिन्न प्रमाणग्राह्याणां चानुग्रहादिकारित्वविरोधः । न हि स्त्रीसङ्गमादिभ्यः प्रतीयमानाः सुखादयोऽन्यस्यात्मनस्तत्कारिणो दृष्टाः । ननु परकीयसुखादीनामनुमानगम्यत्वान्नात्मनोऽनुग्रहादिकारित्वम् ग्रात्मीयानां प्रत्यक्षाधिगम्यत्वात्तत्कारित्वमित्यप्यसारम् ; योगिनोपि तत्कारित्वप्रसङ्गात् प्रत्यक्षाधिगम्यत्वाविशेषात् । श्रात्मीय होने का जो निषेध किया है सो इस विषय पर हम आगे विचार करेंगे, आप नैयायिक ने कहा है कि सुख आदि का साक्षात्कार किसी अन्य प्रमाण से हुआ करता है सो वह अन्य प्रमाण भी दूसरे प्रमाण से प्रत्यक्ष होगा, इस प्रकार से तो अनवस्था आवेगी, एक बात और भी है कि यदि सुख आदि का भिन्न प्रमारण से ग्रहण होना माना जाय तो उन सुख प्रादि से अनुग्रह आदि होने में विरोध आता है, ऐसा तो देखा नहीं गया है कि देवदत्त के द्वारा प्राचरित हुए स्त्री समागम आदि से प्रतीयमान सुखादिक यज्ञदत्त के द्वारा अनुभव में आते हों, अर्थात् देवदत्त का स्त्री समागम संबंधी सुख देवदत्त को ही अनुभवित होता है न कि देवदत्त से भिन्न यज्ञदत्त को । शंका - यज्ञदत्त आदि को वे दूसरे के स्त्री समागमादि से प्रतीयमान सुखादिक इसलिये अनुग्रहादि कारक नहीं होते हैं कि उनमें अनुमानगम्यता है, और अपने सुख मैं - अपने खुद में होने वाले सुख में - प्रत्यक्षगम्यता है इसलिये वे खुद में अनुग्रहादि करते हैं, सो यदि ऐसा माना जाय तो क्या बाधा है । समाधान - बहुत बड़ी बाधा है, देखो योगिजन पर के सुख दुःख आदि को प्रत्यक्ष जानते हैं, अतः उनको भी वे पराये स्त्री संगमादि से उत्पन्न हुए सुख अनुग्रहादि कारक हो जावेंगे, किन्तु ऐसा होता नहीं है । - अपने सुख दुःख जो होते हैं वे ही अपने को अनुग्रह करते हैं अन्य Jain Education International प्रभाकर - को नहीं । जैन - यह प्रस्ताव बेकार है, जब ज्ञान, सुख आदि सभी हम से न्यारे - अत्यंत परोक्ष हैं - तब यह कैसे व्यवस्थित हो सकता है कि यह अपने ज्ञान तथा सुख दुःखादि हैं और ये ज्ञानादि पराये व्यक्ति के हैं, अत्यंत परोक्ष और भिन्न वस्तुनों में आपापराया भेद होना शक्य है । प्रभाकर ने जो कहा है कि सुख दुःखादिक जो अपने होते हैं वे ही अपने को For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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