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________________ ज्ञानको स्वसंविदित नहीं माननेवाले परवादीका पूर्व पक्ष मीमांसक के दो भेद हैं । इनमें एक है भाट्ट और दूसरा है प्रभाकर, यहां भाट्ट ज्ञान के विषय में अपना पक्ष उपस्थित करता है-ज्ञान सर्वथा परोक्ष रहता है, किसी के द्वारा भी उसका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता, "मैं ज्ञान के द्वारा घट को जानता हूं" इस वाक्य में से आत्मा कर्ता, कर्म, घट और जानना रूप क्रिया ये तो प्रत्यक्ष हो जाते हैं, किन्तु करणभूत ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं होता, हम मीमांसक नैयायिक के समान इस करणज्ञान का अन्य ज्ञान से प्रत्यक्ष होना नहीं मानते हैं, हमारा तो यही सिद्धान्त है कि ज्ञान सर्वथा परोक्ष ही रहता है, हां ! इतना जरूर है कि जानने रूप क्रिया को देखकर प्रात्मा ज्ञान युक्त है ऐसा अनुमान भले ही लगा लो, जबतक प्रमिति क्रिया के प्रति जो कर्म नहीं बनता तबतक उस वस्तु का प्रत्यक्ष नहीं होता, ज्ञान करण भत है अतः वह परोक्ष रहता है। यही बात ग्रन्थ में भी कही है कि-"करणज्ञानं परोक्षं कर्मत्वेना प्रतीयमानत्वात-(शाबरभाष्य १।१२) । ज्ञाते त्वनुमानादवगच्छति बुद्धिम् । ज्ञातताऽन्यथाऽनुपपत्तिप्रसूतयाऽर्थापत्त्या ज्ञानं गृह्यते । ( तर्क भाषा पृ० ४२ ) करणज्ञान सर्वथा परोक्ष है, क्योंकि वह कर्मपने से प्रतीत नहीं होता है, जब पदार्थ को ज्ञान जान लेता है तब उसका अनुमान हुआ करता है, अन्यथानुपपत्ति से अर्थात् अर्थापत्ति से भी ज्ञान का ग्रहण हो जाता है, अतः ज्ञान न स्वयं का ग्रहण है-स्वसंविदित है और न अन्य प्रत्यक्षज्ञान से उसका प्रत्यक्ष हो सकता है, मात्र किसी अनुमानादिरूप परोक्षज्ञान से उसकी सत्ता जानी जाती है, यह सिद्ध हुआ। * पूर्वपक्ष समाप्त * 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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