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प्रमेय कमलमार्तण्डे
तथा चेतन यदि पहिले से नहीं था और भूतों से वह पीछे निर्मित हुआ है तो उसमें अभिलाषा, प्रत्यभिज्ञान आदि नहीं होना चाहिये; किन्तु जन्मते ही स्तनपान
आदि की अभिलाषा जीव में देखी जाती है, इसलिये आत्मा अनादि निधन है, गुणपर्यायवाला होने से, पृथिवी आदि तत्त्वों की तरह । इस प्रकार आत्मद्रव्य पृथिवी आदि भूतचतुष्टय से पृथक् सिद्ध होता है । चार्वाक का कहना है कि शरीर से अलग कहीं पर भी जीव की प्रतीति तो होती ही नहीं अतः हम उसे भिन्न नहीं मानते हैं; सो उसमें यह बात है कि शरीर के बाहर तो वह इसलिये प्रतीत नहीं होता कि वह शरीर के बाहर रहता ही नहीं, हम जैन नैयायिक की तरह शरीर के बाहर आत्मा का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते । संसार अवस्था में जीव स्वशरीर में रहता है, जब शरीर छोड़कर दूसरे शरीर में जाता है तब तो वह पूर्व का शरीर यों ही पड़ा रहता है। इसीलिये तो शरीर से चेतन भिन्न माना है ।
* भूतचतुष्टय चैतन्यवाद के खंडन का सारांश समाप्त *
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