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________________ भूत चैतन्यवादः ३१६ समान है । तथा आत्मा को सिद्ध करने वाला अहं प्रत्ययरूप स्वसंवेदन प्रत्यक्ष मौजूद है "मैं ज्ञान के द्वारा घट को जानता हूं, मैं सुखी हूं" इत्यादि प्रयोगों में "मैं अहं " जो हैं वे ही जीव हैं । आप शरीर इन्द्रिय, विषय आदि का गुण ज्ञान को मानते हैं सो वह बिलकुल गलत है देखिये- शरीर का गुण ज्ञान नहीं है क्योंकि शरीर के रहते हुए भी वह पृथक् देखा गया है, यदि वह शरीर का गुण होता तो गुणी के रहते हुए उसे भी रहना चाहिये था, इसी तरह चैतन्य इन्द्रिय का गुण भी सिद्ध नहीं होता और न पदार्थ का ही । क्योंकि इन किसी के साथ भी ज्ञान का अन्वय या व्यतिरेक नहीं पाया जाता है | आपके यहां दो मान्यताएँ हैं- भूतों से चैतन्य प्रकट होता है तथा भूतों से चैतन्य उत्पन्न होता है । प्रथम प्रकट होने का पक्ष लिया जावे तो उसमें यह प्रश्न है कि प्रकट होने के पहिले वह सत् है या प्रसतु है ? या सत् असत् है ? प्रथम पक्ष में उसमें अनादि अनंतता की ही सिद्धि होती है, क्योंकि शरीर आकार परिणत हुए पुद्गल से चेतन जो कि अनादि निधन है वह प्रकट होता है, प्रकट होने का अर्थ ही यही है कि जो चीज पहले से मौजूद थी और व्यंजक के द्वारा प्रकट हुई । जैसे- कमरे के अन्दर अन्धकार में स्थित घटादि पदार्थ पहले से ही हैं और वे दीपक आदि के द्वारा प्रकट होते हैं - दिखाई देते हैं । यदि प्रकट होने से पहिले चेतन सर्वथा असत् है तो उसे प्रकट होना ही नहीं कहते तथा सर्वथा असत् प्रकट होता है तो गधे के सींग भी प्रकट होने लग जायेंगे । प्रविद्धकर्ण चार्वाक का पक्ष है कि भूतों से चैतन्य पैदा होता है, इस पक्ष में हम जैन प्रश्न करते हैं कि पैदा होने में वे भूत उपादान कारण हैं या सहकारी कारण हैं ? उपादान कारण विजातीय हो नहीं सकता, क्योंकि अमूर्तज्ञानदर्शनादि विशिष्ट असाधारण गुणयुक्त ऐसे विजातीय चेतन के उपादान यदि भूत होते हैं तो वे जल को अग्नि, अग्नि को वायु, पृथ्वी को जल इत्यादि रूप से परस्पर में उपादानरूप हो जाने चाहिये ? क्योंकि विजातीय उपादान आपने स्वीकार किया है । जीवका उपादान यदि भूतचतुष्टय है तो जीव में उनके गुणों का अन्वय भी होना चाहिये था । यदि सहकारी कारण मानो तो फिर उपादान न्यारा कौन है सो कहो - यदि कहो कि विना उपादान के बिजली आदि की तरह चेतन उत्पन्न हो जावेगा, सो भी ठीक नहीं, क्योंकि बिजली आदि भी उपादान युक्त है, मद शक्ति का उदाहरण भी विषम है अर्थात् मदशक्ति भी जड़ और उसका उपादान भी जड़ है अतः कोई बाधा नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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