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प्रमेयकमलमार्तण्डे
भतचैतन्यवाद के खंडन का सारांश
चार्वाक-जीव को पृथिवी, जल, अग्नि, और वायु इन चारों से उत्पन्न होना मानते हैं, उनके यहां चारों पृथिवी आदि भूत बिलकुल भिन्न २ माने गये हैं। ( जैसे कि वैशेषिक के यहां माने हैं ) । इन चारों का समुदाय जब होता है, तब एक चेतन विशेष उत्पन्न होता है । जैसे कि गोबर आदि से बिच्छू आदि जीव पैदा होते हुए देखे जाते हैं । जैन यदि ऐसा कहें कि आत्मा यदि भूतों से निर्मित है तो उसे नेत्रादि इन्द्रियों से गृहीत होना चाहिये सो बात भी नहीं, क्योंकि वह चेतन सूक्ष्मभूतविशेष से उत्पन्न होता है, अतः इन्द्रियों द्वारा वह न दिखायी देता है और न गृहीत होता है। शरीर, इन्द्रिय विषय इनसे ही ज्ञान पैदा होता है, जीव से नहीं, जिसप्रकार पथिक मार्ग में बिना अग्नि के ही पत्थर लकड़ी आदि को आपस में रगड़ कर उससे अग्नि पैदा कर देता है, वैसे ही शुरू में जो चेतन जन्म लेता है वह विना चेतन के उत्पन्न होता है, और फिर आगे आगे मरण तक चेतन से चेतन पैदा होता रहता है, मरण के बाद वह खतम-समाप्त-समूलचूल-नष्ट हो जाता है, न कहीं वह परलोक आदि में जाता है और न परलोक आदि से आता है, क्योंकि परलोक और परलोक में जाने वाले जीव इन दोनों का ही प्रभाव है अनुमानादि से यदि आत्मा को सिद्धि करना चाहो तो वह अनुमान भी हमें प्रमाणभूत नहीं है । क्योंकि हम एक प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं । इसलिये जैसे आटा, जल, गुड़ के संमिश्रण से मादकशक्ति पैदा होती है, वैसे ही सूक्ष्मभूतों से चेतन पैदा होता है ऐसा मानना चाहिये ।
जैन- यह सारा ही प्रतिपादन बिलकुल निराधार, गलत है, पृथ्वी आदि चारों भूतों से चेतन उत्पन्न होता तो चूल्हे पर चढ़ी हुई मिट्टी को वटलोई में चेतन पैदा होना चाहिये था, क्योंकि वहां पर चारों पृथिवी, जल, अग्नि, वायु ये मौजूद हैं। सूक्ष्मभूत से उत्पत्ति मानने पर प्रश्न यह पैदा होता है कि सूक्ष्मभूतविशेष किसे कहा जाता है ? सूक्ष्मभूत चेतन का सजातोय है या विजातीय है ? सजातीय माना जाय तो ठीक ही है, सजातीय चेतन उपादान से सजातोय चेतन ज्ञान पैदा होता ही है, यदि विजातोय से माना जाय तो आपके भूतचतुष्टय का व्याघात होता है, क्योंकि विजातीय उपादान से विजातीय की –चाहे जिसकी उत्पत्ति होगी, तो जल से अग्नि आदि पैदा होंगे और फिर वे चारों पृथिवी आदि तत्त्व एक रूप मानने पड़ेगे क्योंकि उपादान
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