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भूतचैतन्यवादः
त्वेनोक्तत्वात् । द्वितीयपक्षे तु-शरीरदेशादन्यत्रानुपलम्भात्तत्र तदभावः, शरीरप्रदेश एव वा ? प्रथमविकल्पे-सिद्धसाधनम् ; तत्र तदभावाभ्युपगमात् । न खलु नैयायिकवज्जैनेनापि स्वदेहादन्यत्रात्मेष्यते । द्वितीय विकल्पे तु न केवलमात्मनोऽभावोऽपि तु घटादेरपि । न हि सोपि स्वदेशादन्यत्रोपलभ्यते ।
किञ्च, स्वशरीरादात्मनोऽन्यत्वाभावः तत्स्वभावत्वात्, तद्गुणत्वात् वा स्यात्, तत्कार्यत्वाद्वा प्रकारान्तरासम्भवात् । पक्षत्रयेपि प्रागेव दत्तमुत्तरम् । ततचं तन्यस्वभावस्यात्मनः प्रमाणतः प्रसिद्ध े - स्तत्स्वभावमेव ज्ञानं युक्तम् । तथा च स्वव्यवसायात्मकं तत् चेतनात्मपरिणामत्वात्, यत्तु न स्वव्यवसायात्मकं न तत्तथा यथा घटादि, तथा च ज्ञानं तस्मात्स्वव्यवसायात्मकमित्यभ्युपगन्तव्यम् ।
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माना गया है, हम जैन नैयायिक मत के समान आत्मा को गृहीत देह को छोड़कर अन्य शरीर या स्थानों में रहना स्वीकार नहीं करते हैं । अर्थात् नैयायिक शरीर से अन्यत्र भी आत्मा का अस्तित्व मानते हैं । किन्तु हम जैन तो शरीर में ही आत्मा की सत्ता स्वीकार करते हैं । दूसरी बात मानो कि शरीर प्रदेश में ही आत्मा की प्राप्ति होती है, अतः प्रात्मा को पृथक् द्रव्यरूप नहीं मानते हैं तब तो इस मान्यता के अनुसार एक आत्मा का हो प्रभाव नहीं होगा किन्तु सारे ही घट आदि पदार्थों का अभाव भी मानना पड़ेगा। क्योंकि वे पदार्थ भी अपने स्थान को छोड़कर अन्यत्र उपलब्ध नहीं होते हैं । आप चार्वाक अपने शरीर से आत्मा को पृथक् नहीं मानते शरीररूप ही मानते हैं सो उसमें क्या कारण हैं ? शरीर का स्वभाव ही आत्मा है इसलिये आत्मा को भिन्न नहीं मानते ? अथवा शरीर का गुरण होने से आत्मा को भिन्न नहीं मानते ? कि शरीर का कार्य होने से आत्मा शरीररूप है ऐसा मानते हो, सो तीनों ही पक्ष की बातें असत्यरूप हैं, क्योंकि शरीर का धर्म, या शरीर का गुण अथवा शरीर का कार्य स्वरूप आत्मा है ही नहीं, अतः प्राप उसको शरीररूप सिद्ध नहीं कर सकते, इस विषय पर भी २ बहुत कुछ कहा जा चुका है, इसलिये निर्बाधपने से चैतन्यस्वभाव वाले आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है, उसीका स्वभाव ज्ञान है, न कि अन्य किसी अचेतन पृथिवी प्रादि भूतों का, ज्ञान स्वको भी जानता है क्योंकि वह चैतन्य आत्मा का परिणाम है, जो स्व को नहीं जानता वह उस प्रकार का चैतन्य स्वभावी नहीं होता, जैसे घट आदि पदार्थ, अपने को नहीं जानने से चैतन्य नहीं हैं, ज्ञान तो चैतन्य स्वरूप है, अतः वह स्वव्यवसायी है, इस प्रकार चार्वाक के द्वारा माने गये भूतचैतन्यवाद का निरसन होता है ।
* चार्वाक के भूत चैतन्यवाद का निरसन समाप्त
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