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। स्वसंवेदनज्ञानवादः
ननु विज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वेऽर्थवत्कर्मतापत्तेः करणात्मनो ज्ञानान्तरस्य परिकल्पना स्यात् । तस्यापि प्रत्यक्षत्वे पूर्ववत्कर्मतापत्ते: करणात्मकं ज्ञानान्तरं परिकल्पनीयमित्यनवस्था स्यात् । तस्याप्रत्यक्षत्वेपि करणत्वे प्रथमे कोऽपरितोषो येनास्य तथा करणत्वं नेष्यते । न चैकस्यैव ज्ञानस्य परस्पर
मीमांसक ने जो ऐसा कहा है कि ज्ञान अपने आपको नहीं जानता है सो अब वे इस बात को स्थापित करने के लिये अपना मन्तव्य रखते हैं
मीमांसक-जैन ज्ञान को प्रत्यक्ष होना मानते हैं सो वह उनकी मान्यता ठीक नहीं है, क्योंकि ज्ञान को यदि प्रत्यक्ष होना माना जाय तो वह कर्मरूप बन जायगा, जैसे कि पदार्थों को प्रत्यक्ष होना मानते हैं तो वे कर्मरूप होते हैं, इस तरह ज्ञान भी कर्मरूप बन जायगा, तो उसको जानने के लिये दूसरे करण की आवश्यकता पड़ेगी, तथा वह करणभूत ज्ञान (जो कि दूसरा है) भी प्रत्यक्ष होगा तो कर्मरूप बन जायगा, फिर उस दूसरे ज्ञान के लिये तीसरा करणभूत ज्ञान चाहिये, इस प्रकार चलते चलते कहीं पर भी विश्राम तो होगा नहीं इससे अनवस्था आयेगी । तुम कहो कि ज्ञान को प्रत्यक्ष करने वाला वह दूसरे नम्बर का ज्ञान अप्रत्यक्ष रहकर ही करण बन जाता है अर्थात् उस दूसरे अप्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा ही प्रथम ज्ञान का प्रत्यक्ष होता है-तब तो आपको प्रथम ज्ञान को भी अप्रत्यक्ष ही मानना चाहिये-जिस प्रकार दूसरा ज्ञान स्वत: अप्रत्यक्ष रहकर प्रथम ज्ञान के लिये करण बनता है वैसे ही प्रथम ज्ञान स्वतः अप्रत्यक्ष रहकर पदार्थों के प्रत्यक्ष करने में करण बन जायगा, क्या बाधा है । तथा-जैन ज्ञान को कर्मरूप और करणरूप भी मानते हैं सो वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि एक हो ज्ञान को परस्पर विरुद्ध दो धर्मयुक्त अर्थात् कर्म और करणरूप मानना ऐसा कहीं पर भी नहीं देखा जाता है । इस प्रकार मीमांसक की ज्ञान के बारे में शंका होने पर उसका समाधान माणिक्य नन्दी प्राचार्य दो सूत्रों द्वारा करते हैं-कि जिस प्रकार प्रमेय
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