SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पृष्ठ [२७] विषय पृष्ठ | विषय बाह्य वस्तुका अभाव निश्चित हुए बिना अनुमान के विच्छेद कारक हैं २३३ विज्ञानाद्वत सिद्ध नहीं हो सकता हेतु अनुमानका कारण है अत: जनक है प्रत्यक्षके समान अनुमानसे भी पदार्थोंका __ ऐसा भी नहीं कह सकते २३४ प्रभाव करना अशक्य है २१६ ग्राह्य ग्राहकता स्वरूपके प्रतिनियमसे विज्ञानाद्वैतवादी बौद्धके यहां तीन हेतु हुआ करती है २३६ माने हैं कार्यहेतु, स्वभावहेतु, बौद्ध एक पदार्थ में दो स्वभाव होनेका अनुपलब्धि हेतु २१७ निषेध करते हैं किन्तु उन्हीके यहां कहा ज्ञान और पदार्थ एक साथ उपलब्ध होने है कि रूप आदि गुण उत्तरक्षणवर्ती से दोनोंमें अभेद माना क्या? सजातीय रूप को एवं विजातीय रसको अद्व तसिद्धि में दिया हुआ सहोपलंभहेतु पैदा करता है सो यह दो को पैदा करने के सदोष है २१९ दो स्वभाव सिद्ध होते हैं २३७ अद्वैत में स्तुत्य, स्तुतिकारक इत्यादि पदार्थमें स्वत: अवभासमानता होनेसे व्यवस्था नहीं बनती २२. वह ज्ञान स्वरूप है ऐसा कहना अनुमान द्वारा ज्ञान और पदार्थमें एकत्व प्रसिद्ध है २३८ सिद्ध करते हो या भेदका अभाव २२१ अद्वैतवादमें साध्य साधनकी व्याप्ति नहीं एकोपलंभ शब्दका अर्थ क्या है ? २२२ २४० अद्वैतसाधक अनुमानके प्रतिभासमानत्व जड़ पदार्थ प्रतिभासके अयोग्य है, यह हेतुका क्या अर्थ है ? २२३ बात जानी हुई है या नहीं? २४२ अहं प्रत्यय के विषयमें बौद्धकी जैनके अद्वै तसिद्धि में दिया गया दृष्टान्त भी प्रति पाठ शंकाएं २४३ अगृहीत अहं प्रत्यय पदार्थका ग्राहक नहीं ___ साध्यविकल है बन सकता, इसी प्रकार सव्यापार सुखादि अनुग्रहादि रूप ही है या उससे निर्व्यापार, भिन्न काल समकाल भिन्न है ? आदि रूप अहं प्रत्यय भी अर्थग्राहक स्वतः प्रकाशमानत्वकी ज्ञानत्वके साथ नहीं हो सकता २२५-२२६ व्याप्ति है २४६ जैनद्वारा बौद्धके आठों शंकाओंका अद्वैत पदमें जो नत्र समास हुआ है वह समाधान २३०-२३२ पर्युदास प्रतिषेध वाला है या ज्ञान समकालीन विषय का ग्राहक है या प्रसज्य प्रतिषेध वाला है २४७ भिन्न कालीन ? इत्यादि प्रश्न विज्ञानाद्वैतवाद के खंडनका सारांश २४८-२५० बनती २२४ २४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy