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भूतचैतन्यवाद पूर्वपक्ष
भारतीय दर्शन में एक नास्तिक मत है और सब आस्तिकवादी हैं, जो शरीर से जीवात्मा की पृथक् सत्ता स्वीकार नहीं करता तथा परलोक-स्वर्ग आदि को नहीं मानता उस मत को नास्तिक मत कहा गया है, इसी का नाम चार्वाक मत है ।
जैनाचार्य ने जब ज्ञान को स्व को जानने वाला और आत्मा का गुण है। ऐसा कहा तब चार्वाक ज्ञान तथा जीव के विषय में अपना मन्तव्य प्रस्तुत करता है - जैन ज्ञान को स्व संविदित मानकर जीव की पृथक् सत्ता सिद्ध करते हैं वह असत्य है, क्योंकि जीव नाम का कोई शरीर से भिन्न पदार्थ नहीं है, अतः उसमें ज्ञानादि गुण का वर्णन करना प्राकाश पुष्प की तरह बेकार है । देखिये - जीव या आत्मा को प्रत्यक्ष से तो सिद्ध नहीं कर सकते, क्योंकि वह दिखायी नहीं देता है । अनुमान प्रमाण से सिद्ध करना चाहो तो प्रथम तो अनुमान ज्ञान असत् - अवास्तविक है और दूसरी बात शरीर से न्यारा जीव कभी भी किसी भी व्यक्ति को दिखाई नहीं देता है, तो फिर वह शरीर से पृथक् कैसे माना जाय । बात तो यह है कि जैन आदि प्रवादी जिसे जीव कहते हैं वह तो पृथिवी आदि भूत चतुष्टय से बना हुआ है- अर्थात् उनसे उत्पन्न हुआ है, हमारे यहां चार ही तत्त्व माने गये हैं- पृथिवी, जल, अग्नि और वायु इन चारों को ही भूतचतुष्टय कहते हैं । इन भूतों के दो दो भेद हैं- (१) सूक्ष्म भूत और स्थूल भूत, इनमें जो सूक्ष्म पृथिवी प्रादि भूत हैं उनसे जीव या चैतन्य उत्पन्न होता है - कहा भी है- 'पृथिव्यप्तेजोवायुरितितत्त्वानि, तत्समुदये शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञाः, तेभ्यश्चैतन्यम्” – पृथिवी, जल, अग्नि, वायु ये चार तत्त्व हैं, इन चारों के समुदाय स्वरूप ही शरीर तथा इन्द्रियां एवं उनके विषय स्पर्शादिक हैं । इन भूतों से चैतन्य उत्पन्न होता है । जगत् में जितने भर भी पदार्थ हैं वे सब दृश्यमान ही हैं । कोई अदृश्य पदार्थ नहीं है । यदि जबर्दस्ती मान भी लिया जाय तो उसकी किसी भी प्रकार से सिद्धि भी नहीं हो सकती है । जीव या आत्मा को किसी समय में किसी क्षेत्र में किसी भी व्यक्ति ने शरीर से पृथक् रूप में देखा नहीं है, अतः शरीर की उत्पत्ति के साथ ही एक चैतन्य या ज्ञानादि से विशिष्ट आत्मा नाम की शक्ति पैदा
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