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अनुमान नहीं रहेगा, क्योंकि क्षणिकत्व की सिद्धि प्रत्यक्ष प्रमारण से ही हो जावेगी, इस पर बौद्ध की दलील है कि जिस वस्तु के अंश में संस्कार पटुता आदि रहती है ज्ञान उसी को जानता है सो वह संस्कार आदि की पटुता उसी अंश में क्यों और अंश में क्यों नहीं ? इत्यादि शंकाएँ खड़ी रहती हैं । इसीप्रकार तदुत्पत्ति का इन्द्रिय के साथ व्यभिचार भी होता है, अर्थात् ज्ञान इन्द्रिय से उत्पन्न होकर भी उसको नहीं जानता है, तथा तदाकारपना भी जड़ता के साथ व्यभिचरित है, अर्थात् ज्ञान जडाकार न होकर भी उस जडता को जानता है, तथा जिसमें तदुत्पत्ति और तदाकार दोनों हैं वहां भी व्यभिचार देखा जाता है, देखिये - विवक्षित एक ज्ञान अपने पूर्ववर्ती ज्ञान से पैदा होकर उसके आकार रूप भी रहता है फिर भी उसे नहीं जानता है । अच्छा तीनों - तदुत्पत्ति, तदाकार, और तदध्यवसाय जिसमें है वहां भी अव्याप्ति है, सफेद शंख में पीलिया रोगी को पीले शंखरूप ज्ञान होता है, वहां तदुत्पत्ति - शंख से उत्पन्न होना, तदाकार - शंखाकार होना, और तदध्यवसाय - शंख को जानना ये सब हैं फिर भी वह ज्ञान प्रमाण नहीं है, इसलिये तदुत्पत्ति की इन्द्रियादि के साथ अति व्याप्ति होती है, तदाकारता की जड़ता के साथ अतिव्याप्ति होती है, दोनों की - तदुत्पत्ति तदाकार की पूर्वक्षणवर्ती ज्ञान के साथ प्रतिव्याप्ति होती है और तीनों की सफेद शंख में पीताकार ज्ञान के साथ प्रतिव्याप्ति होती है, इस प्रकार बौद्ध के ज्ञान का लक्षण जो साकारपना है वह अनेक दोषों से भरा है, अतः वह मानने योग्य नहीं है ।
* साकारज्ञानवाद का सारांश समाप्त *
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साकारज्ञानवादः
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