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प्रमेयकमलमार्तण्डे
हैं, फिर पास और दूर कैसे, एक बड़ी आपत्ति तो यह है कि ज्ञान तो चेतन है, जब वह नीलादि जड़ पदार्थ को जानेगा-उसके प्राकार रूप हो जावेगा तो वह विचारा खुद ही जड़ बन जायगा, तुम कहो कि जड़ाकार न होकर सिर्फ नीलादि आकार रूप ही होता है तो फिर वह जड़ को कैसे जानेगा ? किसी दूसरे ज्ञान से जानेगा तो वह भी जडाकार होकर जानता है या विना जडाकार हुए जानता है ? जडाकार होकर यदि जानता है तो वह स्वयं जड़ हो गया और जडाकार न होकर भी यदि जड़ को जानता है तो वैसे ही नीलादिक को भी विना नीलादि आकार रूप हुए उसको वह जान लेगा, इस तरह तदाकार, ताद्रूप्य साकार ज्ञान का निरसन हो जाता है, इसी प्रकार तदुत्पत्ति का भी, ज्ञान जिससे उत्पन्न होता है उसी को जानता है ऐसा मानो तो इन्द्रियों को क्यों नहीं जानता ? अरे भाई ! जैसे ज्ञान पदार्थ से उत्पन्न हया है वैसे ही वह इन्द्रियों से भी उत्पन्न हुआ है, तथा अदृष्ट भी उसकी उत्पत्ति में कारण माना ही है, अत: इन्द्रिय अदृष्टादि आकाररूप भी ज्ञान को होना चाहिये, किन्तु ऐसा नहीं है । तथा सारी ही वस्तुए समस्त ज्ञान के लिये अपना प्राकार क्यों नहीं अर्पित करतीं सो यह भी प्रश्न होता है । तीसरी बात- ज्ञान तो प्रमाण है वह यदि प्रमेयाकार हो गया तो प्रमाण कौन रहा ? ज्ञान निकटवर्ती पदार्थ के ही आकार वाला होता है, दूरवर्ती पदार्थ के आकारवाला नहीं, सो यह भी क्यों होता है, यदि कहा जाय कि इसमें योग्यता ही ऐसी है क्या किया जाय ? तो हम जैन भी मानते हैं कि ज्ञान निराकार होकर भी प्रतिनियत घटादि को ही जानता है सबको नहीं क्योंकि उसमें ऐसी क्षयोपशमजन्य योग्यता है सो ऐसा ही क्यों न माना जाय । ज्ञान की उत्पत्ति में उपादान कारण तो पूर्वक्षणवर्ती ज्ञान ही माना है, अत: ज्ञान जिससे उत्पन्न होता है उसी को जानता है तथा उसी के प्राकार होता है ऐसा तुम कहते हो तो पूर्व ज्ञान के आकार होकर वह उत्तरवर्ती ज्ञान उसे क्यों नहीं जानता ? आप कहो कि ऐसो ही उसमें योग्यता है तो वही पहिले की बात आती है कि निराकार ज्ञान में ऐसी ही योग्यता है कि वह निराकार होकर भी प्रतिनियत वस्तु को जानता है, यदि वस्तु के नीलादि प्राकार रूप ज्ञान होता है और वह उसी वस्तु को जानता है तो वह क्षणिकत्वादि को भी जानेगा, ऐसी हालत में क्षणिकत्व को साधने के लिये जो अनुमान प्रमाण माना गया है वह व्यर्थ होगा, अर्थात् “सर्वं क्षणिकं सत्वात्" यह बौद्ध का प्रसिद्ध
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