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भूतचैतन्यवादः
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हो जाया करती है, और शरीर के नष्ट होने पर वह शक्ति समाप्त हो जाया करती है, ऐसा सिद्ध होता है। जैसे-गुड़, महा, प्राटा आदि के मिश्रित होने पर मदकारक शक्ति पैदा होती है, जब बिच्छू अादि जीव गोबर आदि से पैदा होते हुए साक्षात् देखे जाते हैं तब इससे यही सिद्ध होता है कि जीवात्मा भूतचतुष्टय-सूक्ष्मभूतों का ही परिणमन है अन्य कोई वह पृथक्-स्वतन्त्र तत्त्व नहीं है । जब जीव नाम की वस्तु ही नहीं तो उसका वर्णन करना कि उसमें ज्ञान आदि गुण पाये जाते हैं, जीव मरकर नरकादि गति में गमन किया करता है, कर्मों को नष्ट कर देता है और मोक्ष जाता है इत्यादि सब कथन बन्ध्या पुत्र के सौभाग्य के वर्णन करने के समान हास्यास्पद है, जीव का परलोक गमन ही नहीं है, अत: परलोक के लिये वत, नियम आदि क्रियाओं का अनुष्ठान करना भी व्यर्थ, वर्तमान सामग्री को छोड़कर भविष्यत् की आशा से उसके लिये प्रयत्न करना मूर्खता है क्योंकि जीव और जीव का ज्ञानादिरूप स्वभाव भूततत्त्व से पृथक् सिद्ध नहीं होता है ।
* पूर्वपक्ष समाप्त *
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