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प्रमेयकमलमार्तण्डे र्थरूपता अर्थसम्बद्धन ज्ञानेन सहचरिता क्वचिदुपलब्धा येनार्थसम्बद्ध ज्ञानं सा निश्वाय येत् । विशिष्टविषयोत्पाद एव च झानस्यार्थेन सम्बन्धः, न तु संश्लेषात्मकोऽस्य ज्ञानेऽसम्भवात् । स चेन्द्रियैरेव विधीयते इत्यर्थरूपतासाधनप्रयासो वृथैव । न चैवं सर्वत्रासौ प्रसज्यते; यतो निराकारत्वेप्यवबोधस्य इन्द्रियवृत्त्या पुरोतिन्येवार्थ नियमितत्वान्न सर्वार्थघटनप्रसङ्गः । 'कस्मात्तैस्तत्र तन्नियम्यते' ? इत्यत्र वस्तुस्वभावैरुत्तरं वाच्यम् । न हि कारणानि कार्योत्पत्तिप्रतिनियमे पर्यनुयोगमर्हन्ति तत्र तस्य रहती हुई कहीं पर उपलब्ध नहीं होती कि जिससे वह अर्थ से संबद्ध ज्ञान है ऐसा निश्चय करावे । पदार्थ के साथ ज्ञान का तो इतना ही संबन्ध है कि वह अपने विशिष्ट विषय को जाने-उसका निश्चय करे, संश्लेषात्मक संबंध तो है नहीं अर्थात् दूध पानी की तरह या अग्नि और उष्णता की तरह पदार्थ का ज्ञान के साथ संबंध नहीं है । क्योंकि ऐसा संबंध सर्वथा असंभव है । हां; पदार्थ को जाननारूप जो संबध है उसे तो इन्द्रियां ज्ञान के साथ खुद ही करा देती हैं। इसलिये ज्ञान में अर्थरूपता आती है तब ज्ञान पदार्थ को जानता है ऐसा सिद्ध करने का प्रयास करना व्यर्थ ही है, अर्थात् प्राप बौद्ध ज्ञान का पदार्थ के साथ संबंध स्थापित करने के लिये ज्ञान को अर्थाकार मानते हैं सो उसकी कोई जरूरत नहीं है, पदार्थ के साथ संबंध कराने वाली तो इन्द्रियां हुआ करती हैं । ज्ञान को अर्थाकार नहीं मानें तो सभी को एक साथ जानने का प्रसंग प्राता है ऐसी आशंका की भी कोई संभावना नहीं है। क्योंकि निराकार ज्ञान में भी इन्द्रियों के द्वारा यह नियम बन जाता है कि ज्ञान सामने की किसी निश्चित वस्तु को ही जानता है न कि सभी वस्तुओं को।
शंका-ज्ञान में अर्थाकारता पदार्थ के जनाने में हेतु न मानकर यदि इन्द्रियों को पदार्थ के जनाने में हेतु माना जावे तो इन्द्रियों के द्वारा किसी एक वस्तु का ही ज्ञान क्यों कराया जायगा सभी पदार्थों का उनके द्वारा ज्ञान कराये जाने का प्रसंग प्राप्त होगा।
समाधान-ऐसी शंका करना ठीक नहीं है । कारण कि स्वभाव रूप कारण में प्रश्न नहीं हुआ करते हैं । ज्ञान निराकार होता है, फिर भी उसे इन्द्रियों की वृत्ति परोवत्ति-अर्थ में ही नियमित करती है। इसलिये ज्ञान के द्वारा समस्त पदार्थों के ग्रहण करने का प्रसङ्ग प्राप्त नहीं होता है । इन्द्रियां निराकार उस ज्ञान को पूरोवर्ती अर्थ में क्यों नियमित करती हैं तो इसका उत्तर उनका ऐसा ही स्वभाव है, जिन २ कारणों से जिस २ कार्य की उत्पत्ति होती है वे वे कारण उन २ कार्यों को क्यों
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