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साकारज्ञानबाद:
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वैफल्यात् । साकारत्वेपि चायं पर्यनुयोगः समानः-साकारमपि हि ज्ञानं किमिति सन्निहितं नीलादिकमेव पुरोवत्ति व्यवस्थापयति न पुनः सर्वम् ? 'तेनैव च तथा जननात्' इत्युत्तरं निराकारत्वेपि समानम् । किञ्च, इन्द्रियादिजन्यं विज्ञानं 'किमितीन्द्रियाद्याकारं नानुकुर्यात्' इति प्रश्ने भवताप्यत्र वस्तुस्वभाव एवोत्तर वाच्यम् । साकारता च ज्ञाने साकारज्ञानेन प्रतीयते, निराकारेण वा ? साकारेण चेत् ; तत्रापि तत्प्रतिपत्तावाकारान्तरपरिकल्पनमित्यनवस्था । निराकारेण चेद्बा ह्यार्थस्य तथाभूतज्ञानेन प्रतिपत्तौ को विद्वषः ?
उत्पन्न करते हैं ऐसा प्रश्न करना वहां व्यर्थ ही है । आप बौद्धों से हम भी यही प्रश्न कर सकते हैं कि आपके साकार ज्ञान में ऐसी व्यवस्था क्यों है, अर्थात् ज्ञान साकार होकर भी किस कारण से निकटवर्ती-सामने के नील आदि को ही ग्रहण करता है अन्य २ दूरवर्ती आदि सभी वस्तुओं को क्यों नहीं ग्रहण करता ? तुम कहो कि उसी एक . वस्तु से ज्ञान पैदा हुआ है अतः उसी को जानता है सो यही बात निराकार पक्ष में भी हो सकती है । आपसे यदि हम जैन पूछे कि ज्ञान इन्द्रियादि से पैदा हुआ है अतः उन इन्द्रियों के आकार को क्यों नहीं धारण करता है तब आपको भी वही वस्तु स्वभावरूप उत्तर देना पड़ेगा, जो कि हमने दिया है । आप यही तो कहोगे कि ज्ञान इन्द्रियाकार तो होता नहीं है पदार्थाकार ही होता है सो ऐसा ही ज्ञानका स्वभाव है। इस प्रकार बौद्ध को भी अंततोगत्वा स्वभाव की ही शरण लेनी पड़ती है । अब हम बौद्धों से पूछते हैं कि ज्ञान में पदार्थों का आकार है इस बात को किसके द्वारा जाना जाता है, साकार ज्ञान के द्वारा या निराकार ज्ञान के द्वारा, साकार ज्ञान के द्वारा कहो तो इस दूसरे ज्ञान की साकारता भी किससे जानी जाती है ? अन्य साकार ज्ञान से कि निराकार ज्ञान से इत्यादि प्रश्न उठते ही रहेंगे। साकार ज्ञान की साकारता जानने के लिये अन्य २ साकार ज्ञान आते रहेंगे और निर्णय होगा नहीं, अत: अनवस्था दोष अावेगा। निराकार ज्ञान से ज्ञान की साकारता जानी जाती है ऐसा द्वितीय पक्ष प्रस्तुत किया जाय तो फिर जैसे ज्ञानके आकार को जानने के लिये निराकार ज्ञान समर्थ है वैसे ही वह बाह्य वस्तुओं को भी जानने में समर्थ हो सकता है फिर इस पर द्वेष करने से क्या लाभ । साकारज्ञानवादी आपके ऊपर एक प्रापत्ति और भी यह पाती है कि पदार्थ के साथ संवित्ति अर्थात् ज्ञान के संबंध की अन्यथानुपपत्ति करने से सन्निकर्ष को प्रमाण मानने का प्रसंग उपस्थित होता है । इस प्रसंग में सन्निकर्ष तो प्रमाण और जानना उसका फल है ऐसा नैयायिक के समान आपको भी
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