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________________ साकारज्ञानवादः २८५ "अर्थन घटयत्येनां न हि मुक्ता(क्त्वा)र्थरूपताम् । तस्मात्प्रमेयाधिगतेः प्रमाणं मेयरूपता ।।" [प्रमाणवा० ३।३०५] इत्यनल्पतमोविलसितम् ; यतो घटयति सम्बन्धयतीति विवक्षितं ज्ञानम्, अर्थसम्बद्धमर्थ रूपता निश्चाययतीति वा ? प्रथमपक्षोऽयुक्तः; न ह्यर्थसम्बन्धो ज्ञानस्यार्थरूपतया क्रियते, किन्तु स्वकारणस्तज्ज्ञानमर्थसम्बद्धमेवोत्पाद्यते । न खलु ज्ञानमुत्पद्य पश्चादर्थन सम्बध्यात् । न चार्थरूपता ज्ञानस्यार्थे सम्बन्धकाररग तादात्म्याभावानुषङ्गात् । द्वितीयपक्षोप्यसम्भाव्यः; सम्बन्धासिद्धेः । न खलु ज्ञानगता अर्थेन घटयत्येनां न हि मुक्त्वार्थरूपताम् । तस्मात्प्रमेयाधिगतेः प्रमाणं मेयरूपता ॥ ३०५ ।। अर्थाकारता को छोड़कर और कोई भी ऐसा हेतु नहीं है कि जो इस बुद्धि को पदार्थ के साथ जोड़े-संबंधित करे । अतः प्रमेय (पदार्थ) को जानने वाला होने से ही प्रमाण में मेयरूपता अर्थाकारता निश्चित होती है । मतलब-हमारे लिये प्रमाणभूत प्रमारणवार्तिक ग्रन्थ में कहा है कि निर्विकल्प बुद्धि को पदार्थ के साथ संबंधित करने वाली अर्थाकारता ही है। अर्थाकारता को छोड़कर अन्य कोई भी ज्ञानका निजी भेद नहीं है, और न वह अन्य का भेद करने वाला ही हो सकता है । पदार्थ के जानने रूप फल से ही मालूम पड़ता है कि ज्ञान अर्थाकार है। जैन-यह कथन अज्ञान से भरा हुआ है, क्योंकि आप यह तो बताइये कि उपर्युक्त कारिका की “घटयति" इस क्रिया का क्या अर्थ है ? संबंधित कराना ऐसा अर्थ है कि निश्चय कराना ऐसा अर्थ है ? मतलब-वह अर्थरूपता विवक्षित ज्ञान का पदार्थ के साथ संबंध जोड़ती है ? कि ज्ञान अर्थ से संबद्ध है ऐसा निश्चय कराती है ? प्रथमपक्ष को स्वीकार करना ठीक नहीं है, क्योंकि अर्थाकारता के द्वारा ज्ञान का पदार्थ से संबंध नहीं किया जाता है किन्तु अपने कारणों के द्वारा पदार्थ का ज्ञान अर्थ से संबद्धित हुअा ही उत्पन्न किया जाता है, ऐसा तो नहीं देखा जाता कि पहिले ज्ञान हो फिर पीछे से अर्थ के साथ उसका संबंध होता हो । तथा अर्थाकारता पदार्थ में ज्ञान का संबंध कराने में कारण भी नहीं है, यदि अर्थाकारता संबंध का कारण हो तो उसका ज्ञानके साथ तादात्म्य कैसे माना जायगा, अर्थात फिर ज्ञान और अर्थाकारपना ये दोनों भिन्न भिन्न हो जावेंगे । दूसरा पक्ष भी असंभव है, क्योंकि इनका संबंध सिद्ध नहीं होता है। देखो ज्ञान में हुई जो अर्थाकारता है वह अर्थ से संबद्ध ज्ञान के साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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