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________________ २८४ प्रमेयकमलमार्तण्डे मेवार्थाकारमनुभूयते न पुनर्बाह्योऽर्थ इत्यभिधातव्यम् ; ज्ञानरूपतया बोधस्यैवाध्यक्ष प्रतिभासनानार्थस्य । न ह्यनहङ्कारास्पदत्वेनार्थस्य प्रतिभासेऽहङ्कारास्पदबोधरूपवत् ज्ञानरूपता युक्ता, अहङ्कारास्पदत्वेनार्थस्यापि प्रतिभासोपगमे तु 'अहं घट:' इति प्रतीतिप्रसङ्गः । न चान्यथाभूता प्रतीतिरन्यथाभूतमर्थ व्यवस्थापयति; नीलप्रतीतेः पीतादिव्यवस्थाप्रसङ्गात् । बोधस्याकारतां मुक्त्वार्थेन घटयितुमशक्त : 'नीलस्यायं बोधः' इति, निराकारबोधस्य केनचित्प्रत्यासत्तिविप्रकर्षासिद्धः सर्वार्थघटनप्रसङ्गात्सक वेदनापत्तेः प्रतिकर्मव्यवस्था ततो न स्यादित्यर्थाकारो बोधोऽभ्युपगन्तव्यः । तदुक्तम् -- बौद्ध-ज्ञान ही पदार्थ के आकाररूप होता है यह तो प्रत्यक्ष से अनुभव में आता है, किन्तु ज्ञान के प्राकार पदार्थ होता है यह दिखाई नहीं देता है। जैन-ऐसा नहीं है। प्रत्यक्ष में तो ज्ञान का ज्ञानरूप से प्रतिभास होता है न कि अर्थ का ज्ञानरूप से प्रतिभास होता है, जो अनहंकाररूप से प्रतीत होता है उस पदार्थ को अहंकार ( मैं ) रूप से प्रतीत हुए ज्ञानरूप मानना तो युक्त नहीं है । यदि अर्थ भी अहंकाररूप से प्रतीत होगा तो "मैं घट हूं" ऐसी प्रतीति होनी चाहिये, किन्तु ऐसी प्रतीति होती नहीं है । अन्यरूप से प्रतीत हुए अर्थ की अन्यरूप से प्रतीति कराना तो ज्ञान का काम नहीं है । यदि ऐसा होने लगे तो नील की प्रतीति से पीत आदि की भी व्यवस्था होने लगेगी। बौद्ध-पदार्थ के साथ ज्ञानका संबंध घटित करने के लिये अर्थाकारता को माना है, उसके विना नील अर्थ का यह ज्ञान है ऐसा कह नहीं सकते । निराकार ज्ञान का किसी एक निश्चित पदार्थ के साथ कोई भी प्रत्यासत्तिविप्रकर्ष ( तदाकारतदुत्पत्ति संबंध ) तो बनता नहीं है, अतः सभी पदार्थों के साथ उसका संबंध हो सकता है। फिर सभी पदार्थों को एक ही निराकार ज्ञान जानने वाला हो सकता है । ऐसो परिस्थिति में प्रतिकर्म व्यवस्था-घट ज्ञान का घट विषय है, पट ज्ञान का पट विषय है ऐसी व्यवस्था बनना अशक्य हो जायगा, अर्थात् घट ज्ञान का विषय घट ही है पट नहीं और पट ज्ञान का विषय पट ही है घट नहीं इत्यादि रूप से निश्चित पदार्थ व्यवस्था नहीं बन सकेगी, अतः वस्तु व्यवस्था चाहने वाले आप जैन को ज्ञान साकार ही होता है ऐसा मानना चाहिये, कहा भी है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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