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साकारज्ञानवादः
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प्रमाणत्वाचास्य तदभावः । अर्थाकारानुकारित्वे हि तस्य प्रमेयरूपतापत्तेः प्रमाणरूपताव्याघातः, न चैवम्, प्रमाणप्रमेययोर्बहिरन्तर्मुखाकारतया भेदेन प्रतिभासनात् । न चाध्यक्षेण ज्ञान
ज्ञानों का कारण क्यों नहीं होती और क्यों नहीं वे सभी ज्ञानों को अपना प्राकार देती हैं ?
बौद्ध-वस्तु का ऐसा ही सामर्थ्य है कि जिससे कोई एक वस्तु किसी एक ज्ञान का ही कारण होती है, सभी वस्तुएं सभी ज्ञानों के लिये कारण नहीं हो सकती।
जैन- तो फिर इसी प्रकार से ही कोई एक ज्ञान किसी एक वस्तु को निराकार रहकर जानता है, सभी को नहीं जानता है, ऐसा मानना चाहिये, व्यर्थ ही प्रतीति का अपलाप करने से क्या लाभ ।।
भावार्थ- बौद्ध यद्यपि ज्ञान को साकार मानते हैं, परन्तु कहीं २ पर वे उसे निराकार भी मानने लग जाते हैं, जडत्व, इन्द्रियां, मन, अदृष्ट आदि वस्तुओं को ज्ञान तदाकार हुए विना ही जानता है ऐसी भी उनकी मान्यता है, इससे उनकी मान्यता को लेकर आचार्यों ने उन्हें समझाया है कि जैसे ज्ञान कहीं निराकार रहकर उसे जान लेता है, वैसे ही वह सर्वत्र निराकार रहकर क्यों नहीं जानेगा, अर्थात् अवश्य ही जानेगा, ज्ञान में ऐसी प्रतिनियत ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम की योग्यता है कि जिसके कारण यह जितनी वस्तु को जानने का उसमें क्षयोपशम हुआ है उतनी ही वस्तुओं को जानता है, निराकार होने से कोई सभी को नहीं जानता, क्योंकि उतना उसमें क्षयोपशम ही नहीं है, बौद्ध से जब हम पूछते हैं कि सभी ज्ञानों में सभी पदार्थों का आकार क्यों नहीं आता तब वे भी योग्यता का ही उत्तर रूप में शरण लेते हैं कहते हैं कि सभी पदार्थों के प्राकार आने की योग्यता ही उस में नहीं है इत्यादि, इसलिये योग्यता के अनुसार निराकार रहकर ही ज्ञान वस्तु को जानता है यह प्रतीति से सिद्ध होता है । एक बहुत मतलब की बात हम बौद्ध को बताते हैं कि ज्ञान प्रमाणभूत है इसलिये उसमें पदार्थ का आकार नहीं रह सकता है, यदि ज्ञान पदार्थाकार होता है तो वह प्रमेय कहलावेगा, फिर प्रमाणता का उसमें लेश भी नहीं रहेगा। परन्तु इस प्रकार से प्रमाण का प्रमेयरूप होना या दोनों-प्रमाण और प्रमेयरूप होना संभव नहीं है, प्रमाणतत्त्व तो अन्तर्मुखरूप से प्रतीत होता है और प्रमेयतत्त्व बहिमुख रूप से । अतः इन दोनों में भेद है ।
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