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प्रमेयकमलमार्तण्डे
यच्चोच्यते-'यथैवाहारकालादेः समानेऽपत्यं जननी पित्रोस्तदेकमाकारं धत्त नान्यस्य कस्यचित्, तथा चक्षुरादेः कारणत्वाविशेषेपि नीलस्यैवाकारमनुकरोति ज्ञानं नान्यस्य' इति; तन्निराकारज्ञानेपि समानम् । तत्कार्यत्वाविशेषेपि हि यया प्रत्यासत्त्या ज्ञानं नीलमेवानुकरोति तयैव सर्वत्रानाकारत्वाविशेषेपि किञ्चदेव प्रतिपद्यते न सर्वमिति विभागः किं नेष्यते ? अन्योन्याश्रयदोषश्चोभयत्र समान: । किञ्च, प्रतिनियतघटादिवत्सकलं वस्तु निखिलज्ञानस्य कारणं स्वाकारार्पकं वा किन्न स्यात् ? वस्तुसामर्थ्यात् किञ्चिदेव कस्यचित् कारणं न सर्व सर्वस्येति चेत् ; तहि तत एव किञ्चित्कस्यचिद्ग्राह्य ग्राहकं वा न सर्व सर्वस्येत्यलं प्रतोत्यपलापेन ।
बौद्ध-जिस प्रकार आहार, काल आदि अनेकों कारणों के समानरूप से मौजद होते हुए भी बालक अपने माता या पिता के आकार को ही धारण करता है उसी प्रकार ज्ञान चक्षु आदि अनेकों कारणों के होते हुए भी नीलत्व के आकार को ही धारता है और अन्य किसी के आकार को नहीं धारता है।
जैन- इस प्रकार का समाधान तो हम भी दे सकते हैं कि ज्ञान निराकार है, यद्यपि इन्द्रियादिक का वह समानरूप से कार्य भी है तो भी वह उसी योग्यता के कारण नियत नीलादिक को ही जानता है और अन्य किसी भी पदार्थ को नहीं जानता है। ऐसा विभाग निराकार ज्ञान में भी संभव है, अत: उसे क्यों नहीं माना जाये।
बौद्ध-ज्ञान को निराकार मानने में अन्योन्याश्रय दोष आवेगा, अर्थात् ज्ञान प्रतिनियत वस्तु को ही जानता है यह सिद्ध होने पर उसके नियतयोग्यता रूप स्वभाव की सिद्धि होगी और उस नियत स्वभाव की सिद्धि होने पर प्रतिनियत वस्तु का जानना सिद्ध होगा।
जैन-यही दोष आपके साकार ज्ञान में भी तो आवेगा, देखिये-ज्ञान नियत जो नीलादि आकार है उसीका अनुकरण करता है, जड़ता का नहीं यह बात सिद्ध होने पर ही उस ज्ञान की निश्चित किसो आकार रूप होने की योग्यता सिद्ध होगी और इस नियत योग्यता के सिद्ध होने पर ही नियत नोलाकार होने की संभावना हो सकेगी। इस प्रकार तो एक की भी सिद्धि नहीं होगी। एक बात और हम बौद्धों से पूछते हैं कि जिस प्रकार किसी एक ज्ञान को कोई एक घटादि पदार्थ अपना प्राकार समर्पित करता है और वह उसका कारण होता है, इसी प्रकार सभी वस्तुएं सभी
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