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नीलाकारमात्रस्यैव प्रतीतेः । नापि द्वितीयात्तस्य जडतामात्रविषयत्वात् । प्रथोभयविषयं ज्ञानान्तरं परिकल्प्यते तच्च दुभयत्र साकारम् स्वयं जडता निराकारं चेत्; परमतप्रसङ्गः । क्वचित्साकारतायामुक्तदोषोऽनवस्था ।
साकारज्ञानवादः
ननु निराकारत्वे ज्ञानस्याखिलं निखिलार्थवेदकं तत्स्यात् क्वचित्प्रत्यासत्तिविप्रकर्षाभावादित्यप्यपेशलम् ; प्रतिनियतसामर्थ्येन तत्तथाभूतमपि प्रतिनियतार्थव्यवस्थापकमित्यग्र वक्ष्यते । ‘नील(कारर्वज्जडाकारस्यादृष्ट े न्द्रियाद्याकारस्य चानुकरणप्रसङ्गः कारणत्वाविशेषात्प्रत्यासत्तिविप्रकर्षाभावाच्च' इति चोद्य भवतोपि योग्यतैव शरणम् ।
फिर अन्य कोई ज्ञान जडत्व को जानेगा वह भी तदाकार होवेगा, तो जड़ बन जायगा, और अतदाकार रह कर जानेगा तो नीलत्व को भी अतदाकार रह कर जान लेना चाहिये, इत्यादि ।
बौद्ध - ज्ञान को निराकार मानोगे तो वह एक ही समय में सम्पूर्ण पदार्थों को जानने वाला हो जायेगा ? क्योंकि अब उस ज्ञान में तदाकारत्व तदुत्पत्ति दि रूप नियामक कोई संबंध तो रहा नहीं ।
जैन - यह कथन ठीक नहीं है । क्योंकि ज्ञान में एक ऐसा क्षयोपशमजन्य प्रतिनियत सामर्थ्य है कि जिससे वह निराकार रहकर भी नियमित पदार्थों की व्यवस्था बराबर करता रहता है । इस विषय का विवेचन हम आगे करेंगे ।
ज्ञान साकार होकर ही वस्तु को जानता है तो नीलत्व के समान जडत्व के आकार को क्यों नहीं धारण करता ? अदृष्ट जो पुण्य पाप रूप है उनके तथा मनइन्द्रियां वस्तु के आकार को क्यों नहीं धारण करता है । उन सबके प्राकारों को भी उसे धारण करना चाहिये, क्योंकि जैसे आप ज्ञान का कारण जो पदार्थ है उसके आकार रूप ज्ञान हो जाता है ऐसा मानते हैं और वे सब इन्द्रियां मन आदि ज्ञान के कारण हैं ही इसलिये ज्ञान को इन्द्रियाकार होना चाहिये और मन के आकार भी होना चाहिये, यदि आप कहो कि नील आदि की तो निकटता है और इन्द्रियादि की दूरता है अतः इन्द्रियादि के आकार रूप ज्ञान नहीं होता है सो भी बात नहीं, क्योंकि नीलत्व के समान इन्द्रियादिक भी निकटवर्ती ही हैं, अतः इन इन्द्रिय अदृष्ट आदि के आकार को ज्ञान क्यों नहीं धारता है ऐसा प्रश्न होने पर आपको हम जैन की कर्म के क्षयोपशम लक्षण वाली योग्यता की शरण लेनी पड़ती है ।
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