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साकारज्ञानवाद पूर्वपक्ष जिस प्रकार हम बौद्ध निर्विकल्पक ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं उसी प्रकार प्रमाण मात्र को अर्थाकार होना भी मानते हैं । अर्थात् ज्ञान जिस पदार्थ से उत्पन्न होता है वह उसी के आकार वाला होता है। इसे ही तदुत्पत्ति तदाकार होना कहते हैं । ज्ञान नील आदि पदार्थ से उत्पन्न होता है यह उसकी तदुत्पत्ति है और वह उसी के आकार को धारण करता है यह उसकी तदाकारता है, जब ज्ञान उस नील आदि से उत्पन्न होता है और उसी के आकार को धारण करता है तब ही वह उसे जान सकता है और तभी वह सत्य की कोटि में आता है, यही तदध्यवसाय है, जैन आदि प्रवादी ज्ञान को तदाकार होना-पदार्थ के प्राकार होना नहीं मानते हैं, अतः उनके मत में अमुक ज्ञान अमुक वस्तु को हो जानता है ऐसी व्यवस्था नहीं बन सकती है, अब आगे ज्ञान साकार है-पदार्थ को जानते समय पदार्थ के आकार हो जाता है इस बात को बौद्धों की मान्यता के अनुसार सप्रमाण सिद्ध किया जाता है
अर्थसारूप्यमस्य प्रमाणम् ॥ २० ॥ अर्थेन सह यत् सारूप्यं सादृश्यं अस्य ज्ञानस्य तत प्रमाणम् इह यस्माद् विषया द्विज्ञानमुदेति तद्विषयसदृशं तद्भवति, यथा नीलादुत्पद्यमानं नीलमदृशं, तच्च सारूप्यं सादृश्यं आकार इत्याभास इत्यपि व्यपदिश्यते ॥२०॥ न्याय बिन्दु पृ० ८४
अर्थ- ज्ञान का जो पदार्थ के प्राकार होता है वही उसका प्रमाणपना है अर्थात् ज्ञान जिस विषय से उत्पन्न होता है उसी विषय के आकार को धारण करता है । जैसे-नील पदार्थ से उत्पन्न हुना ज्ञान नील सदृश ही बनता है, इसी सारूप्य को सादृश्य, आकार आभास इत्यादि नामों से पुकारा जाता है, अन्यत्र भी यही कहा है
तस्मात् प्रमेयाधिगतेः प्रमाणं मेयरूपता ॥ (प्रमाणवातिक ) प्रमेय को जानने से ही प्रमाण का मेयाकार-पदार्थाकार होना सिद्ध होता है।
अर्थेन घटयत्येनां न हि मुक्त्वार्थरूपताम् । अन्यत् स्वभेदो ज्ञानस्य भेदकोऽपि कथंचने ॥ ३०५ ॥
---प्रमाणवातिक
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