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अचेतन ज्ञानवादः
२७३ किन्तु वास्तविक चेतन प्रधान का धर्म है, ऐसी विपरीत मान्यता भी माननी पड़ेगी ! तुम कहो कि आत्मा में ज्ञान स्वतः माने तो प्रात्मा अनित्य हो जायगा इसलिये ज्ञान से भिन्न प्रात्मा को माना है सो भी ठीक नहीं क्योंकि यही दोष प्रधान में भी आता है अर्थात् प्रधान में बुद्धि मानी जाय तो वह भी अनित्य हो जायगा, इस पर सांख्य ने युक्ति दी है कि बुद्धिरूप विवर्त्त अव्यक्त प्रधान से पृथक् है तो फिर ऐसे ही आत्मा में मानो, कोई विशेषता नहीं, प्रात्मा भी अपने ज्ञानरूप स्वपर संवेदन से कथंचित् भिन्न है, अत: यह तो नित्य है और बुद्धि अर्थात् ज्ञान अनित्य है । बुद्धि यदि अचेतन है तो वह प्रतिनियत वस्तु को जान नहीं सकती है, जैसे दर्पण । बुद्धि और चैतन्य में कुछ भी भेद दिखाई नहीं देता है, व्यर्थ ही उसमें भिन्नता मानते हो । अग्नि और लोहे का दृष्टान्त ठीक नहीं, क्योंकि जब लोहा अग्नि के साथ संबंध करता है तब वह खुद ही अपने कठोरता, कृष्णता आदि गुणों को छोड़कर उष्णादिरूप हो जाता है, इसलिये इनमें सर्वथा भेद नहीं है। बुद्धि में विषय का आकार मानना भी गलत है, क्योंकि बुद्धि तो अमूर्त है, उसमें मूर्त प्राकार कैसे आ सकता है ? बुद्धि के जो लक्षण किये गये हैं वे भी सदोष हैं। प्रथम लक्षण यह है कि अन्त:करण रूप जो हो वह बुद्धि है सो यह लक्षण मत में चला जाता है अतः अतिव्याप्त है, तथा पुरुष के उपभोग्य की निकटता का जो कारण है वह बुद्धि है सो ऐसा यह लक्षण इन्द्रियों के साथ अतिव्याप्त हो जाता है। इसलिये सदोष-लक्षण अपने लक्ष्य को सिद्ध नहीं कर सकता, अन्त में सार यही है कि बुद्धि, आत्मा-पुरुष का धर्म है उसी के ज्ञान, अध्यवसाय, प्रतिभास, प्रतीति आदि नाम हैं ।
* सांराश समाप्त *
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