________________
विज्ञानाद्वैतवादः
२२५ ननु चाहम्प्रत्ययो गृहीतः, अगृहीतो वा, निर्व्यापारः, सव्यापारो वा, निराकारः साकारो वा, ( भिन्नकालः, समकालो वा ) नीलादेहिकः स्यात् ? गृहीतश्च त्-कि स्वतः परतो वा ? स्वतश्चेत्; स्वरूपमात्रप्रकाशनिमग्नत्वाबहिरर्थप्रकाशकत्वाभाव एव स्यात् । परतश्चेदनवस्था; तस्यापि ज्ञानान्तरेण ग्रहणात् । न च पूर्वज्ञानाग्रहणेप्यर्थस्यैव ज्ञानान्तरेण ग्रहणमित्यभिधातव्यम् ; तस्यासन्नत्वेन जनकत्वेन च ग्राह्यलक्षणप्राप्तत्वात् । तदाह
शंका-नीलादि में ज्ञानपना सिद्ध करना ही यहां साध्य माना है।
समाधान-अच्छा तो ज्ञानपना किसरूप है सो बताईये, यदि प्रकाशता को ज्ञानता कहते हो तो वह साध्य के सिद्ध होने पर सिद्ध ही हो जायगी फिर उसे साध्य क्यों बनाते हो, यदि वह प्रसिद्ध है तो हेतु प्रसिद्ध क्यों नहीं हुआ, अर्थात् हुआ ही, भला ऐसा कौन व्यक्ति है जो अपना प्रतिभास बाह्यवस्तु में माने और उसमें ज्ञानता का प्रतिभास न माने । मतलब-ज्ञान के प्रतीत होने पर ज्ञानता भी प्रतीत होगी; उसे पृथक रूप से सिद्ध करने की जरूरत नहीं ।
अब बौद्ध अहं प्रत्यय का नाम सुनकर उसका दूर तक-विस्तृतरूप से खण्डन करते हैं
बौद्ध-जैन द्वारा माना गया जो अहं प्रत्यय नीलादिक का ग्राहक होता है सो वह कैसा होकर उनका ग्राहक-जानने वाला होता है ? क्या वह गृहीत हुआ उनका ग्राहक होता है ? या अगृहीत हुआ उनका ग्राहक होता है ? या व्यापाररहित हुआ ? या व्यापार सहित हुप्रा ? या निराकार हुआ ? या साकार हुआ उनका ग्राहक होता है ? या भिन्नकालवाला हुया या समकालवाला हुआ उनका ग्राहक होता है ? अर्थात इनमें से किस प्रकार का अहं प्रत्यय नील आदि को जानता है ? यदि कहा जाय कि नीलादिका वह गृहीत होकर ग्राहक होता है तो यह बताओ कि वह किससे गृहीत हैअपने आपसे या पर से ? यदि वह स्वतः गृहीत है तो वह अपने ही स्वरूप के प्रकाशित करने में मग्न रहेगा, बाह्य पदार्थों का प्रकाशन उससे नहीं बन सकेगा, यदि कहा जाय कि अहं प्रत्यय पर से गृहीत होकर नीलादि पदार्थों को जानता है तो इस पक्षमें अनवस्था खड़ी हो जावेगी, क्योंकि अहं प्रत्यय का ग्राहक जो परज्ञान होगा वह भी पर से गृहीत होकर ही उस अहं प्रत्यय का ग्राहक होगा इसी तरह द्वितीय परज्ञानका जो तृतीय परज्ञान ग्राहक होगा वह भी चतुर्थ परज्ञान से गृहीत हुआ होकर ही उसका
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org