________________
प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
यच्चोच्यते- 'यदभा (यदवभा) सते तज्ज्ञानं यथा सुखादि, अवभासते च नीलादिकम्' इति; तत्र किं स्वतोऽवभासमानत्वं हेतुः, परतो वा, प्रभा ( श्रवभा ) समानत्वमात्रं वा ? तत्राद्यपक्षे हेतु रसिद्ध: । न खलु परनिरपेक्षा नीलादयोऽवभासन्ते' इति परस्य प्रसिद्धम् । 'नीलादिकमहं वेद्मि' इत्यहमहमिकया प्रतीयमानेन प्रत्ययेन नीलादिभ्यो भिन्न ेन तत्प्रतिभासाभ्युपगमात् । यदि च परनिर पेक्षावभासानीलादयः परस्य प्रसिद्धा स्युस्तर्हि किमतो हेतोस्तं प्रति साध्यम् ? ज्ञानतेति चेत्; सा यदि प्रकाशतार्तार्ह हेतु सिद्धौ सिद्धव न साध्या । असिद्धौ वा तस्या । - कथं नासिद्धो हेतुः ? को हि नाम स्वप्रतिभासं तत्रेच्छन् ज्ञानतां नेच्छेत् ।
२२४
सभी को अनिष्ट ऐसे ज्ञानाभाव का प्रसंग प्राप्त होगा, क्योंकि उपलब्धि के अनुसार ही वस्तु व्यवस्था हुआ करती है, और भी देखो -वस्तु और ज्ञान में किस प्रकार भिन्नता है - ज्ञान का स्वरूप भिन्न है और पदार्थों का स्वरूप भिन्न हैं, ज्ञान का कारण भिन्न है तथा पदार्थों का कारण भिन्न है, पदार्थ ग्राह्यस्वरूप होते हैं और ज्ञान ग्राहक माने जाते हैं, यदि इनमें प्रभेद माना जावे तो दोनों - ज्ञान और पदार्थ एक दूसरे के ग्राह्य और ग्राहक बन जावेंगे। क्योंकि दोनों का स्वरूप एक मान रहे हो, ज्ञान और पदार्थ में कारण भेद भी सुप्रसिद्ध है, ज्ञान अपने इन्द्रिय प्रादिरूप कारणों से उत्पन्न होता है और पदार्थ इससे विपरीत अन्य अन्य (मिट्टी आदि) कारणों से पैदा होते हैं ।
अद्वैतवादी ने जो अनुमान प्रयोग किया है कि जो प्रतिभासित होता है वह ज्ञान है ( पक्ष साध्य ), क्योंकि वह प्रतिभासमान है ( हेतु ), जैसे सुख दुःखादि ( दृष्टान्त), नीलादि पदार्थ प्रतिभासित होते हैं, अतः वे सब ज्ञानस्वरूप ही हैं, सो इस अनुमान प्रयोग में हेतु अवभासमानत्व है सो इसका आप क्या अर्थ करते हो, स्वतः अवभासमानत्व कि पर से श्रवभासमानत्व अथवा अवभासमानसामान्य ? यदि स्वतः प्रवभासमानत्व कहा जाय तो वह हेतु हम परवादियों के लिये असिद्ध है, क्योंकि देखो — ज्ञानके बिना अकेले नीलादि पदार्थ अपने आप प्रतिभासि नहीं होते हैं, "मैं नीलादिक को जानता हूं" इस प्रकार के अहं प्रत्यय से प्रतीत नोलादिक से भिन्न एक प्रतिभास है उससे नीलादिक प्रतीत होते हैं, न कि अपने प्राप, पर से निरपेक्ष अपने आप से प्रतिभासित होने वाले पदार्थ हैं ऐसा हम जैन ने स्वीकार किया होता तो आप बौद्ध किसलिये इस सहोपलम्भ हेतु को उपस्थित करते और उस हेतु से सिद्ध करने योग्य साध्य भी क्या रहता अर्थात् कुछ भी नहीं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org