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प्रमेयकमलमार्तण्डे
"तां ग्राह्यलक्षणप्राप्तामासन्नां जनिकां धियम् ।
अगृहीत्वोत्तरं ज्ञानं गृह्णीयादपरं कथम् ।।" [ प्रमाणवा० ३१५१३ ] अगृहीतश्च द्ग्राहकोऽतिप्रसङ्गः । न च निर्व्यापारी बोधोऽर्थग्राहकः; अर्थस्यापि बोधं प्रति ग्राहकत्वानुषङ्गात् । व्यापारवत्त्वे चातोऽव्यतिरिक्तो व्यापारः, व्यतिरिक्तो वा ? अाद्यविकल्पे-बोधस्वरूपमात्रमेव नापरो व्यापारः कश्चित् । न चानयोरभेदो युक्तः; धर्मर्मितया भेदप्रतीतेः। द्वितीय
ग्राहक होगा। इस तरह से परापर ज्ञान संतान चली जाने से विश्रान्ति के अभाव में मूल को क्षति पहुँचाने वाली अनवस्था उपस्थित हो ही जायगी, यदि ऐसा कहा जाय कि पूर्वज्ञानको-अहं प्रत्ययको-ग्रहण किये विना ही ज्ञानान्तर-द्वितीयज्ञान अर्थ मात्र को नीलादिको-ग्रहण कर लेता है सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं क्योंकि वह पूर्ववर्तीज्ञान उत्तरवर्ती ज्ञान के निकट है तथा उत्तरज्ञान उससे पैदा भी हुआ है, इसलिये वह अवश्य ही ग्राह्य है, कहा भी है-निकटवर्ती, ग्राह्य लक्षण युक्त उस पूर्ववर्ती ज्ञानको विना ग्रहण किये उत्तरकालीन ज्ञान किस प्रकार अन्यपदार्थ-नीलादिक-को ग्रहण करेगाअर्थात् नहीं ग्रहण कर सकता, इस प्रकार प्रमाणवार्तिक ग्रन्थ में लिखा है, अहं प्रत्यय यदि अगृहीत है ऐसा माना जाय तो वह पदार्थों का ग्राहक नहीं होगा, क्योंकि ऐसा मानने से अतिप्रसंग आवेगा-फिर तो देवदत्त का ज्ञान जिनदत्त के द्वारा अज्ञात रहकर उसके अर्थ को ग्रहण करने वाला हो जावेगा। यदि ऐसा कहा जाय कि अहं प्रत्यय व्यापार रहित होकर नीलादि का ग्राहक होता है सो भी ठोक नहीं, क्योंकि जो ज्ञान निर्व्यापार अर्थात् निष्क्रिय होता है वह पदार्थ का ग्राहक नहीं हो सकता, अन्यथा पदार्थ भी ज्ञान का ग्राहक बन जायगा, यदि अहं प्रत्ययको व्यापार सहित मान भी लो, तो वह व्यापार उस अहं प्रत्यय से पृथक् है कि अपृथक् है ? यदि वह अपृथक् है तो वह बोधस्वरूप ही-अहं प्रत्ययरूप ही रहा व्यापाररूप कुछ नहीं रहा, परन्तु इन अहं प्रत्यय और व्यापार में अभेद मानना युक्त नहीं है, क्योंकि अहं प्रत्यय धर्मी और व्यापार धर्मरूप होने से इनमें भेद प्रतीत होता है-भेद दिखाई देता है। अतः अहं प्रत्यय से व्यापार पृथक् है ऐसा पक्ष लिया जावे तो भेद में सम्बन्ध न बनने के कारण उस व्यापार से अहं प्रत्यय का कुछ उपकार या कार्य बन नहीं सकेगा, व्यापार से उसका उपकार होना माना जाय तो अनवस्था दोष अावेगा क्योंकि उपकार के लिये-उपकार करने के लिये-उस व्यापार को अपर व्यापार की और उसके लिये अन्य व्यापार की आवश्यकता होती ही रहेगी, यदि अहं प्रत्यय को निराकार
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