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विज्ञानाद्वैतवादः
ननु चाविभागबुद्धिस्वरूपव्यतिरेकेणार्थस्याप्रतीतितोऽसत्त्वाद्विज्ञप्तिमात्रमेव तत्त्वमभ्युपगन्तव्यं तद्ग्राहकं च ज्ञानं प्रमाणमिति; तन्न; यतोऽविभागस्वरूपावेदकप्रमाणसद्भावतो विज्ञप्तिमात्रं तत्त्वमभ्युपगम्यते, बहिरर्थसद्भावबाधकप्रमाणावष्टम्भेन वा ? यद्याद्यः पक्षस्तत्रापि तथाभूतविज्ञप्तिमात्रं ग्राहकं ( मात्रग्राहकं ) प्रत्यक्षम्, अनुमानं वा ? प्रमाणान्तरस्य सौगतैरनभ्युपगमात् । तत्र न तावप्रत्यक्षं बहिरर्थसंस्पर्श रहितं विज्ञप्तिमात्रमेवेत्यधिगन्तु समर्थम् ; अर्थाभावनिश्चयमन्तरेण विज्ञप्तिमात्रमेवेत्यवधारणानुपपत्तेः ।
विज्ञानाद्वरतवादी- ऊपर जो जैन ने अद्वैत का निरसन कर अनेक प्रकारके पदार्थों को सिद्ध किया है वह ठीक नहीं है, क्योंकि विभाग रहित एक मात्र बुद्धि अर्थात् ज्ञान को छोड़कर अन्य वस्तु की प्रतीति नहीं होती है, अतः उन अन्य वस्तुओं का अभाव ही है, आप जैन को तो एक विज्ञानमात्र तत्त्व है और उसे ग्रहण करने वाला ज्ञान ही प्रमाणभूत है ऐसा मानना चाहिये।
जैन-यह आपका कथन हमें मान्य नहीं है, क्योंकि आप लोग जो ज्ञानमात्र तत्त्व को मानते हो सो उस अविभागरूप तत्त्व को ग्रहण करनेवाले प्रमाण का सद्भाव है इसलिये मानते हो या बाह्य अनेक प्रकारकी वस्तुओं को बाधा देनेवाला प्रमाण है इसलिये उस ज्ञानाद्वैत को मानते हो ? विज्ञानमात्र एक तत्त्व को जानने वाला प्रमाण है इसलिए विज्ञानमात्र एक तत्त्व मानते हैं सो इस प्रथम पक्ष में प्रश्न है कि विज्ञानाद्वैत को सिद्ध करनेवाला वह प्रमाण कौनसा है ? प्रत्यक्ष प्रमाण है अथवा अनुमान प्रमाण है ? इन दोनों को छोड़कर अन्य प्रमाणों को आप बौद्धोंने माना नहीं है, प्रत्यक्षप्रमाण बाह्य पद र्थोसे सर्वथा रहित ऐसा एक विज्ञानमात्र ही तत्त्व है ऐसा जानने के लिये तो समर्थ है नहीं, क्योंकि जब तक पदार्थों
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